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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


सकता है । आश्रम लौट आनेपर हरिभाईसे अपनी आँखें जँचवाना । नेत्र चिकित्साके क्षेत्रमें उसका अच्छा नाम है ।

भणसालीको लिखे तुम्हारे पत्रको भाषा बहुत ज्यादा तीखी नहीं थी । शैली मुझे पसन्द आई।

अगर मेरे कलके पत्रमें लिखी बातें तुम्हारी समझमें साफ-साफ नहीं आई हों तो मुझे लिखना।

सस्नेह,

बापू

अंग्रेजी (सी० डब्ल्यू ० ५२६१ ) से । सौजन्य : मीरा बहन

३२६. पत्र : आश्रमकी बहनोंको

मौनवार [ १५ अगस्त, १९२७][१]

बहनो,

तुम्हारा पत्र मिल गया है। आज हम जिस जगह हैं वह बंगलोरसे काफी दूर है । यहाँ ठण्ड कम है पर हरियाली ज्यादा है । कुछ-कुछ अंबोली जैसा लगता है ।

अपना निर्धारित कामकाज तो मैं यहाँ कर रहा हूँ परन्तु मेरी आत्मा आश्रमके आसपास और गुजरात में घूम रही है । यह कोई गुण नहीं बल्कि अवगुण ही है क्योंकि इसमें मोह है । आश्रममें होता तो और अधिक क्या करता ? गुजरातकी और क्या मदद करता ? किन्तु यह उत्पाती मन व्यर्थ बेचैन रहता है। ऐसी कुटेवसे तुम सब बचना । लेकिन ऐसी तटस्थता सीखनेकी एक शर्त है। जो अपने कर्त्तव्यके ही ध्यानमें लीन रहता है वही दूसरी बातोंके विषय में उदासीन हो सकता है। पत्थर तटस्थ होता है पर उसे हम जड़ मानते हैं। उसके मुकाबले हम चेतन हैं । परन्तु हमारा जीवन तभी सफल माना जायेगा जब हम प्राप्त कार्य में ही लीन रहें और दूसरी किसी बात का ध्यान तनिक भी न करें। इस प्रकारकी ध्यानावस्था एकाएक प्राप्त नहीं हो जाती । तुम लोगोंमें से कोई मेरे दोषोंका स्वप्न में भी अनुकरण न करे इसीलिए अपने इस दोषका वर्णन मैंने तुम्हारे सामने यहाँ सहज भावसे कर दिया है ।

आजकी भाषा थोड़ी कठिन हो गई है । जो शब्द या विचार समझ में न आये उन्हें समझना ।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी० एन० ३६६१) की फोटो - नकलसे ।

  1. गांधीजी इस तारीखको 'बंगलोरसे काफी दूर ' शिमोगामें थे ।