पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/४२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३९१
बाढ़ से शिक्षा

निर्णयको स्वीकार कर लीजिएगा या श्वेताम्बरों और दिगम्बरोंकी तरह, जो एक धर्मके दो सम्प्रदायोंके अनुयायी थे और इसलिए जिन्हें भाई-भाई कहा जा सकता था, खुली लड़ाईमें कूद पड़ियेगा ? क्या वे दोनों एक-दूसरेकी दृष्टिमें दुष्ट नहीं थे ? सच तो यह है कि आप जिनको दुष्ट मानते हैं उनको नेस्तनाबूद करनेका सिद्धान्त जहाँ आपने स्वीकार किया, वहीं आपके सारे तर्क चुक जाते हैं और आप उसी वर्ग में पहुँच जाते हैं जिसमें 'कुरान शरीफ' के बारेमें लिखनेवाले लेखक या उनके लेख आते हैं। मैं जो भी यहाँ लिख रहा हूँ उसकी पुष्टिके लिए इतिहासका प्रमाण देनेकी आवश्यकता नहीं समझता, लेकिन यदि जरूरत पड़े तो वे जुटाये जा सकते हैं ।

मैं आपको निष्ठावान सत्यान्वेषी मानता हूँ । नानकदेव और कबीर के बारेमें आपने जो राय दी है, मेरी अपनी राय उससे बिलकुल भिन्न है । लेकिन यह तो छोटी-सी बात है; यदि मुझे आपकी पुस्तिका मिल गई, तो मैं बड़ी खुशीसे आपको वे अनुच्छेद निकालकर बताऊँगा जिनका अनुवाद मेरी दृष्टिमें समुचित नहीं हुआ है ।

यह बड़ी विचित्र बात है कि जो हिन्दी पत्र मुझे बिलाशक मिला है वह प्रोफे- सर सहगलका लिखा हुआ नहीं है । उनका नाम तो मैंने पत्रसे ही जाना था । फिर भी अफसोस है कि मैंने उत्तर लिखने के बाद वह पत्र नष्ट कर दिया। यही हो सकता है कि किसी और ने प्रो० सहगलके कागजपर उन्हींके नामसे पत्र लिख दिया हो । पर इसमें कोई खास बात नहीं। मैंने तो यों ही आपकी जानकारीके लिए यह बता दिया है ।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी (एस० एन० १२३८८ ) की माइक्रोफिल्म से ।

३३३. बाढ़से शिक्षा

यदि सच हो तो अच्छा है

मैं 'नवजीवन' में[१] स्वामी आनन्दका लेख और बाढ़ पीड़ितोंमें किये जा रहे सहायता कार्यका विवरण पढ़ गया हूँ । किन्तु उसमें दिये गये लोगोंकी वीरता, सहयोग और दयाके उदाहरणोंमें विश्वास करते हुए मैं हिचक रहा हूँ क्योंकि झूठी प्रशंसा, अतिशयोक्ति और आत्मवंचना आजकल इतनी ज्यादा दिखती है कि गुजरातने इतना अधिक साहस दिखाया होगा यह मानते हुए मन में संकोच होता । किन्तु 'नवजीवन' में प्रकाशित इस सारी हकीकतपर अविश्वास करनेका भी मेरे पास कोई कारण नहीं है । 'नवजीवन' में अतिशयोक्ति और असत्य आदिका दृढ़तापूर्वक त्याग किया जाता है, यह बात स्वामी आनन्द 'नवजीवन' के जन्मकालसे ही जानते हैं और 'नवजीवन' की इसी नीति के कारण वे संस्थाकी सेवा कर रहे हैं और उसमें रस ले रहे हैं।

  1. ७ अगस्त, १९२७ के नवजीवनमें; देखिए " टिप्पणियाँ " २५-८-१९२७ के अन्तर्गत उप- शीर्षक "क्या सत्य इतना सुन्दर हो सकता है ? "