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बाढ़ से शिक्षा

गये होते, यदि हमने उसे गालियाँ देने में अपना समय नष्ट किया होता, यदि हमने हिंसक वृत्ति रखकर उससे झगड़ा किया होता तो हमारा कष्ट कई गुना बढ़ जाता । इस 'गरवी'[१] गुजरातको मेरे हजारों नमस्कार !

किन्तु मैं ?

एक प्रश्न किया जा सकता है: गुजरातको इस तरह बधाई देनेका, उसकी इस तरह स्तुति करनेका किसी दूर बैठे गुजरातीको क्या अधिकार हो सकता है ? मुझे इस अवसर पर गुजरात में होना चाहिए, इस आशय के तीन तार और एक पत्र मेरे पास पहुँचे। पत्र पहले मिला था । पत्र स्वामी आनन्दका था । " क्या तुम्हारा धर्म इस समय यहाँ आकर द्रव्य और स्वयंसेवकोंको इकट्ठा करके अपनी सेवा देना नहीं है ? " इस वाक्य में में स्वामीकी वेदना और मेरे प्रति उनका मोह देख सका। बाद में सरोजिनीदेवीका एक हृदयद्रावक तार आया; उसमें एक वाक्य यह था : " अपनी तबीयतको जोखिम में डालकर भी तुम यहाँ आओ और दुःखियोंके आँसू पोंछो, उन्हें हिम्मत बँधाओ।" बादमें ज्वलन्त भाषा में एक तार 'चन्दूलाल' का आया । ऐसी ज्वलन्त भाषा में जो तार भेज सकता है ऐसे एक ही चन्दूलालको मैं जानता हूँ इसलिए मैंने इस तारको अपने परिचित डा० चन्दूलालका तार मान लिया । किन्तु डा० चन्दूलाल कहते हैं कि वह तार उनका नहीं था । जिसका भी हो उसे ऐसे समय मुझे उलाहना देनेका और मेरे ऊपर नाराज होनेका अधिकार है । दुःखकी घड़ियोंमें बहुधा मनुष्य अपने लोगोंपर नाराज होकर उस दुःखको कुछ कम करता है । और यदि मेरे साथी मेरे ऊपर नाराज न हों तो किसके ऊपर हों ? अस्तु, वह तार चाहे जिस चन्दूलालका रहा हो मैंने उसका स्वागत किया। इसके बाद दो तार भाई देवचन्द पारेखके आये जिनमें मुझसे साबरमती आश्रम में बैठकर सेवा करनेका आग्रह किया गया था ।

किन्तु मैं तो निश्चिन्त रहा। गुजरातकी स्वावलम्बन-शक्तिपर मेरा पूरा विश्वास था और आर्थिक सहायताके सम्बन्धमें तो बिलकुल शंका थी ही नहीं । वल्लभभाईपर मुझे पूरा भरोसा था और उनके साथ तार-व्यवहार चल ही रहा था। मुझसे गुजरात आनेके लिए जो आग्रह किया जा रहा था उसकी जानकारी देते हुए मैंने उन्हें तार भेजा और यह सूचना दी कि यदि वे भी मेरी उपस्थिति आवश्यक मानते हों तो मुझे तार दें। उन्होंने तुरन्त तारसे जवाब दिया, जिसका मैं अनुवाद ही दिये दे रहा हूँ : " लोगोंका दुःख अवर्णनीय है किन्तु आपकी आजकी हालत में आपका यहाँ आना उचित नहीं । आपने गुजरातको अपने पैरोंपर खड़े होनेकी जो तालीम दी है और यहाँ जिन संस्थाओंको आपने खड़ा किया है उनके द्वारा आपकी उपस्थितिसे जितना हो सकता है उसकी अपेक्षा कहीं ज्यादा काम हुआ है । कुछ लोग आपकी अनुपस्थितिका उलटा अर्थ अवश्य करेंगे किन्तु वह तो अनिवार्य है । आपको आराम करना चाहिए और यहाँ न आ सकने के बारेमें चिन्ता नहीं करनी चाहिए। " इसी आशयका एक तार बादमें स्वामी आनन्दका भी मिला ।

  1. अर्थात् गौरवशाली; गुजरातके लिए गुजराती लेखकों द्वारा प्रयुक्त प्रचलित विशेषण।