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बाढ़से शिक्षा

महत्त्वपूर्ण कामको छोड़कर किसी दूसरे लुभावने कामके पीछे अकारण दौड़ पड़ना धर्म नहीं बल्कि अधर्म ही कहा जायेगा । हमारे आलोचक हमारे सम्बन्धमें यह कहते हैं कि हम बहुधा संकटकी घड़ियोंमें उतावलीके कारण और मोहवश अपनी प्रत्युत्पन्न मति और विवेक खो बैठते हैं । इस आरोप में जितना सत्य हो उस सीमातक हमें उससे मुक्त हो ही जाना चाहिए।

किसी भी मनुष्य या स्त्रीको और खासकर किसी भी नेताको बाहरी दबाव के अधीन होकर अपने हृदयकी आवाजका अनादर करके कोई काम नहीं करना चाहिए । जो नेता ऐसा करता है वह लोगोंका मार्गदर्शन करनेका अधिकार खो बैठता है । इस अवसरपर यह कहावत ठीक लागू पड़ती है कि 'जाननेवालेको जो चीज ढक्कन में भी दिख जाती है पड़ोसीको वह आइने में भी नजर नहीं आती। मुझे ऐसा लगा ही नहीं कि इस अवसरपर मेरा कर्त्तव्य गुजरात दौड़े आनेका है ।

ऊपर मैंने जिन तारोंकी चर्चा की है वे मेरे प्रति लोगोंके मोहके सूचक हैं। यह मोह जाना चाहिए। मुझमें कोई शक्ति नहीं है; मैं तो निमित्त मात्र हूँ । सच्ची शक्ति तो सत्यकी, प्रेमकी अर्थात् अहिंसाकी ही है। यह शक्ति जहाँ होती है वहाँ अन्तमें सब सरल और अनुकूल हो जाता है, यह निर्विवाद सिद्धान्त है । गुजरात और भारतवर्ष मेरा मुँह ताकते हुए बैठे रहें, इसमें हमारी हानि है । उन्हें तो सत्य और अहिंसाकी जोड़ीकी पूजा करनी चाहिए। वे सत्य और अहिंसाकी ओर ही देखें और मेरे जैसा सेवक जबतक सीधी राह चलता रहे तबतक उससे काम लें और जिस दिन वह टेढ़ा चलने लगे उस दिन उसे दण्ड दें ।

यदि में वहाँ आ जाता तो गुजरातने जो जौहर दिखाया और अब भी दिखा रहा है उसे उस स्थिति में शायद वह न दिखा पाता । जो नेता या सेवक अशक्त हो गये हैं उन्हें सक्रिय नेतृत्व या सक्रिय सेवाका लोभ छोड़ देना चाहिए। इस आपत्ति के कालमें बीमार आदमीके लिए कोई स्थान नहीं हो सकता । उसमें तो उन्हीं लोगोंका काम है जो स्वस्थ हैं, दौड़-धूप कर सकते हैं, और भूख-प्यास, गरमी- सरदीका कष्ट सह सकते हैं। जो ऐसा नहीं कर सकते वे वेगके साथ आगे बढ़ रही सेना के लिए बाधक ही सिद्ध होंगे।

अन्त में, सेवकको इस बातसे न तो डरना चाहिए और न नाराज होना चाहिए कि उसके व्यवहारका कोई गलत अर्थ लगाया जा सकता है । जो सेवा करता है या नेतृत्व करता है उसके कामके विषय में गलतफहमी सदासे होती रही है और होती रहेगी, उसे सहन करना और अपने निश्चयपर अडिग बने रहना भी सेवकका और नेताका एक लक्षण है । मेरा तो हमेशासे यही अनुभव रहा है । इसलिए ऐसी गलत- फहमीका मेरे मनपर कोई असर नहीं होता ।

संक्षेप में मुझे इतना ही कहना है कि गुजरातने इस समय स्वाश्रयका परिचय देकर अपने-आपको जिस प्रकार शोभान्वित किया है वैसा ही वह हमेशा करता रहे। मेरे-जैसे आदमी तो जाने कितने आयेंगे और जायेंगे ।