पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/४३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लिए औचित्य और आधार है तो भी जिस विवेकशून्य तरीकेसे और जिस सीमातक उसपर अमल किया जा रहा है, उसपर चोट की गई हो। आपके लेख वापस भेज रहा हूँ ।

हृदय से आपका,

अंग्रेजी (एस० एन० १२६३२) की माइक्रोफिल्म से ।

३३९. पत्र : के० पी० पद्मनाभ अय्यरको

स्थायी पता: बंगलोर
१९ अगस्त, १९२७

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला । आपने कोई नई बात तो कही नहीं ।मेरा सवाल बिलकुल सीधा था --आपने स्वयं कोई प्रयोग किये हैं या नहीं और यदि किये हैं तो उनका परिणाम क्या निकला ? [१]आपने इस सवालका जवाब तो दिया नहीं, उलटे एक सैद्धा- न्तिक निबन्ध लिख मारा, जिसकी मेरे लिए कोई उपयोगिता नहीं है । लोग मुझे पत्र लिख-लिखकर ऐसी तमाम बातोंके सम्बन्धमें सलाह देते रहते हैं, जिनका उन्हें कोई निजी अनुभव नहीं होता। मैंने सोचा था कि आपने इस विषयकी तालीम ली है, इसलिए आपको तो शायद कुछ अनुभव होगा ।

आहार-सम्बन्धी सुधारोंके विषय में पश्चिम में प्रकाशित लगभग सभी पुस्तकें में देख चुका हूँ। वे एक सीमातक ही उपयोगी हैं। उनमें दिये गये अनेक निष्कर्ष तो ऐसे होते हैं जिनके बारेमें बहुत ही अधिक सावधानी रखनी चाहिए। यह इसलिए कि हमारी अपनी खान-पान की आदतें उनसे बिलकुल भिन्न हैं । पाश्चात्य देशोंकी परिस्थितियोंमें किये गये प्रयोगोंके परिणाम ठीक वही नहीं हो सकते जो हमारे यहाँ वैसे ही प्रयोग करनेके होंगे। और फिर मैंने यह भी देखा है कि प्रयोगोंका विवरण भी हर पुस्तक में पूरी तरह यथातथ्य पेश नहीं किया जाता । बहुत-सी जानकारी छोड़ दी जाती है। हम चाहे चिकित्सा - कार्य से सम्बद्ध हों या किसी अन्य कार्य से, पर सच तो यह है कि हममें से अधिकांश अपने धन्धेमें वैज्ञानिक दिलचस्पी नहीं लेते। हमारा मुख्य लक्ष्य पैसे कमाना या किसी भी तरह जीवन में आगे बढ़ना ही रहता है। इसलिए मौलिक रूपसे किये गये गवेषणात्मक कामका बहुत अभाव है ।

अब चूँकि मैं स्वयं प्रयोग नहीं कर सकता, इसलिए में दूसरोंके अनुभवोंसे सहर्ष सहायता लेने को तैयार हूँ । परन्तु अनुभव वास्तविक होने चाहिए, वे पुस्तकीय ज्ञानके आधारपर कही गई बातें न हों।

  1. देखिए " पत्र : के० पी० पद्मनाभ अय्यरको”, २१-७-१९२७ ।