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३४३. पत्र : बी० गोपालाचारको

चिकमगलूर
१९ अगस्त, १९२७

आपके प्रश्नोंके उत्तर दे रहा हूँ :

१. मेरे विचारसे, नीचे में जो शर्तें बता रहा हूँ, वे जहाँ पूरी नहीं होतीं वहाँ न राज्य से कोई सहायता मांगनी चाहिए और न राज्यको ही चाहिए कि वह किसी प्रकारकी सहायता दे :

ऐसे हर स्कूलमें, जहाँ प्रधानाध्यापक या अध्यापकगण धुनाई और कताई सीखने और बुनाई कताईकी परीक्षामें बैठनेको तैयार हों, प्रधानाध्यापक या सम्बन्धित अध्यापक के वेतन में पाँच रुपये प्रति मासकी वृद्धि की जानी चाहिए, बशर्ते कि वह इस बातकी गारंटी दे कि हर महीने प्रति बालक या प्रति बालिका द्वारा कमसे कम छः नम्बरका पाँच तोला सूत तैयार किया जायेगा, और वृद्धिकी यह रकम उसे तभी मिले जब निरीक्षक इस बातका प्रमाणपत्र दे दे कि जितना अपेक्षित था, उतना सूत काता गया और कताईके साज-सामान के लिए प्रति बालक या प्रति बालिका चार आनेकी दरसे पूँजीगत खर्च बैठा ।

टिप्पणी : मेरा अनुभव बताता है कि जबतक कोई ऐसी व्यवस्था नहीं की जाती तबतक स्कूलों में हाथ कताईपर किया जानेवाला सारा खर्च बेकार जायेगा । और जबतक स्कूलोंके अध्यापकोंको और जरूरत हो तो प्रारम्भिक अवस्थामें बालकों और बालिकाओंको भी घूम-घूमकर कताई सिखानेवाले शिक्षकों और तालीमयाफ्ता निरीक्षकोंका एक दल तैयार नहीं हो जाता तबतक स्कूलोंमें कताई शुरू करवाना गलत होगा ।

२. कताईको केवल उन्हीं प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलोंमें अनिवार्य बनाया जाना चाहिए जहाँकी नगरपालिका या स्थानिक निकाय के मतदाताओंका बहुमत इसके पक्षमें हो। यदि लोकमत हाथकताईके पक्षमें न हो, तो जबरन व्यवस्था करना व्यर्थ होगा ।

३. अबतक का दुर्भाग्यपूर्ण अनुभव यही रहा है कि बालिकाओंकी अपेक्षा बालक कताई जल्दी सीख लेते हैं । इसीलिए मैं दोनोंमें कोई भेद नहीं कर रहा हूँ और फिर बालक-बालिकाओंके मनमें ऐसी धारणा पैदा करना गलत होगा कि कताईका काम वास्तवमें बालिकाओंका ही है, बालकोंका नहीं । कताईको एक राष्ट्रीय कर्त्तव्य समझा जाना चाहिए और बालक-बालिकाओंके सन्दर्भमें इसका महत्त्व इसके सांस्कृतिक लाभकी दृष्टिसे समझना चाहिए ।

४. पाठशालाओंमें कताई चालू कराने के सम्बन्ध में कपास पैदा करनेवाले इलाकोंका ख्याल करनेका सवाल ही नहीं उठता। और फिर, कपासकी एक जाति, देवकपास तो कहीं भी उगाया जा सकता है।