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पत्र : मीराबहन को

गये हैं और अपने हाथोंसे काम करना बिलकुल ही भूल गये हैं। भगवान् कृष्णने 'भगवद्गीता' में हमको भक्तिका मार्ग दिखाया है. जो कर्म-मार्ग ही है । लोकमान्य तिलकने हमें बतलाया है कि हम चाहे भक्त बनने के इच्छुक हों या ज्ञानी बननेके, उसे प्राप्त करनेका एक ही मार्ग है - कर्म, परन्तु यह स्वार्थके लिए नहीं परमार्थके लिए होना चाहिए। स्वार्थकी दृष्टिसे किया गया कर्म व्यक्ति के लिए बन्धनकारी होता है, जब कि परमार्थके लिए किया गया कर्म उसे बन्धन से मुक्त करता है । ऐसा कौन-सा निःस्वार्थ कर्म हो सकता है, जिसको हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पुरुष, स्त्री और बालक सभी समान रूपसे कर सकें ? मैंने सिद्ध करनेकी कोशिश की है कि ऐसा यज्ञ- रूप कार्य कताई ही हो सकता है, क्योंकि यही वह कार्य है जो हम ईश्वरके नाम- पर गरीब जनताके लिए कर सकते हैं और जो जनताके शिथिल अंगोंको सक्रिय बना सकता है। भगवान् कृष्णने हमें यह भी सिखाया है कि यदि हमें सच्चा भक्त बनना है, तो हमें ब्राह्मण और भंगीमें भेद नहीं करना चाहिए। यदि यह सच है, तो फिर हिन्दू धर्म में अस्पृश्यताका कोई स्थान होना ही नहीं चाहिए। यदि आप आज भी इस अंधविश्वास से चिपटे हुए हों तो आपको आज जन्माष्टमीके इस पवित्र दिवसपर ही इसका त्याग करके आत्म-शुद्धि करनी चाहिए। 'गीता' में सच्ची निष्ठा रखनेवाला कोई व्यक्ति हिन्दू और मुसलमान के बीच भेद नहीं करेगा, क्योंकि भगवान् कृष्णने कहा है कि कोई चाहे जिस नामसे ईश्वरकी उपासना करे, यदि उसकी उपासना सच्ची है तो वह उन्हींकी उपासना है । 'गीता' में प्रतिपादित भक्ति, कर्म या प्रेमके मार्ग में मनुष्यसे घृणा करनेकी कोई गुंजाइश नहीं है ।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १-९-१९२७

३४८. पत्र : मीराबहनको

२१ अगस्त, १९२७

चि० मीरा,

तुम्हारे पत्र मिल गये । मैसूरका सबसे लम्बा दौरा पूरा कर लिया। अब अगले सप्ताह तमिलनाडका दौरा शुरू करूँगा । अब मद्रास के पतेपर पत्र लिखना । महादेव पता[१] दे देगा। मैं ३० की सुबह मद्रासके लिए रवाना हो जाऊँगा । यहाँ २९ तारीख- तक डाक ली जायेगी ।

आसुरी वृत्तियोंसे तुम्हारे संघर्षकी बात पढ़कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ । हम दुर्बल मानवोंके लिए तो यह अनवरत संघर्ष ही हमारी एकमात्र कसोटी और

  1. मार्फत एस० श्रीनिवास अय्यंगार, अमजद बाग, मइलापुर, मद्रास ।