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३४९. पत्र : जमनादासको

बंगलोर
मौनवार, [ २२ अगस्त १९२७][१]

चि० जमनादास,

तुम्हारा पत्र मिल गया। अच्छा हुआ तुमने पत्र लिखा। मैं तो चाहता हूँ तुम पत्र लिखो । उनका उत्तर देकर में शायद तुम्हें कुछ शान्ति दे सकूं।

तुम्हारा विश्लेषण में समझ सकता हूँ । इस समय तो तुम्हें एक ही इलाज बता सकता हूँ। तमाम अड़चनें व त्रुटियाँ मेरे सामने रखने के बाद तुम श्रद्धा रखो और प्रफु- लित चित्तसे मेरी आज्ञा मानो । मेरी आज्ञामें तुम्हें यदि कोई भूल या खामी दिखाई दे तो उसका पाप या दायित्व तुम मुझपर छोड़ दो। जो सिपाही अपना कर्त्तव्य जानता है वह अपने सरदारकी भूल देखते हुए भी उसके हुक्मका सावधानीसे पालन करता है। जिसे अपने सरदार में विश्वास है वह उसमें कोई भूल नहीं देखता, चाहे जगत्‌को उसमें भूलें दिखाई दें। पहली अवस्था तो अभयाससे प्राप्त की जा सकती है पर दूसरी तो इस जन्म या पूर्व जन्मकी किसी तपश्चर्याका प्रसाद है। पहली अवस्था में बुद्धि काम करती है, दूसरीमें केवल हृदय ।

तुम्हारे बारेमें मैंने पिछले सप्ताह नानाभाईको पत्र लिखा था । पैसेकी अड़चन दूर हो जायेगी। देर हो तो अपरिहार्य समझकर सहन कर लेना । नानाभाईके साथ निस्संकोच बात कर लेना और जैसा वे कहें वैसा करना । अभी तो मेरी यही आज्ञा है ।

यहाँ जब भी आनेकी इच्छा हो, आ जाना। पैसा आश्रमसे मँगा लेना । तबीयतका ध्यान रखना ।

बापूके आशीर्वाद

[ पुनश्च : ]
इस मासके आखिरतक बंगलोर में रहूँगा ।
गुजराती (सी० डब्ल्यू० ८५९५ ) से ।
सौजन्य : राधाबहन चौधरी

  1. मैसूर के दौरेकी समाप्ति के उल्लेखसे; देखिए अगला शीर्षक भी ।