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३५०. पत्र : आश्रमकी बहनोंको

मौनवार [ २२ अगस्त, १९२७ ][१]

बहनो,

मैसूरका सबसे लम्बा दौरा पूरा करके कल यहाँ लौटे हैं । इस सप्ताह के अन्त में यानी मंगलवार ३० तारीखको मैसूर बिलकुल छोड़ देना है, इसलिए सोमवारके बाद पहुँचनेवाले पत्र मद्रास भेजने होंगे। पता मैं ठीक-ठीक नहीं जानता ।

बहनें सीने वगैराका काम करके संकट निवारण कोषमें चन्दा देंगी, यह बहुत अच्छी बात है । जो मजदूरिने आश्रम में काम करती हैं, उन्हें भी इस काम में शामिल करना । वे सियें यह में नहीं कहता, लेकिन वे चाहें तो एक दिनकी मजदूरी उसमें दें। अभी तो इतना ही काफी होगा कि इस निमित्तसे तुम उनके सम्पर्क में आओ । यदि उनकी जरा भी अनिच्छा हो तो न दें। हमने आश्रम में काम करनेवाले मजदूरोंके जीवन में प्रवेश नहीं किया, यह बात इस बार समझ लेंगे तो भविष्य में यह सम्बन्ध अधिक बढ़ेगा । हमें अपने में 'गीता' की समदर्शिता पैदा करनी है ।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी० एन० ३६६३) की फोटो - नकलसे ।

३५१. पत्र : छगनलाल जोशीको

२२ अगस्त, १९२७

तुम्हारे दोनों पत्र मिल गये । काका आज सोनेकी खानें देखने गये हैं इसलिए तुम्हारे पत्र उन्हें नहीं दिखा सका। वे आकर तुम्हें पत्र लिखेंगे। तुम्हारे पत्र बाद में भेज दूंगा या वे भेज देंगे। इसके बाद कुछ लिखना होगा तो महादेव लिख देगा ।

तुमने मुझे पत्र लिखकर ठीक ही किया है। यदि तुम न लिखते तो मुझे बुरा लगता । तुम्हारा पत्र सँभालकर रखने लायक नहीं लगा इसलिए उसे फाड़ दिया है। मुझे लगा कि जितने कम लोग इसे पढ़ें उतना ही अच्छा है इसीलिए फाड़ दिया ।

तुमने जो लिखा है उसका पहला हिस्सा तो मुझे मालूम था । यानी, मगनलालके उपवास' तककी बात मुझे मालूम थी । किन्तु उपवासके बाद भी दोनोंने अपनी प्रतिज्ञाका भंग किया यह नई खबर है और रामदास के अनुभवकी बात भी नई है। यह सही है कि उससे मेरे मन में सन्देह उत्पन्न हुआ है। किन्तु मैं जो राय दे रहा हूँ उसका

  1. देखिए “पत्र : बलवन्तराय मेहताको ”, २-९-१९२७ के पश्चात् ।