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पत्र : आनन्दीबाईको

ज्ञान तो किसी संतसे ही मिलेगा। अक्षर-ज्ञान तो जहाँसे भी मिले वहींसे ले लेना चाहिए। इसलिए अमुक व्यक्ति सिखाये तो ही सीखूंगी, यह विचार छोड़ देना । जिस युवती के मन में विकार होंगे वह ऐसा जरूर सोच सकती है। तुम्हारा ऐसा सोचना ठीक नहीं है। हाँ, यह में समझ सकता हूँ कि अपना अज्ञान प्रकट करने में तुम्हें शर्म महसूस हो सकती है । यह शर्म तो तुम्हें छोड़ ही देनी चाहिए ।

यदि रसिकको संस्कृत अच्छी तरह आती हो तो उससे मैं क्यों न सीखूं ? और हमारे लिए तो सब लड़के रसिककी तरह ही हैं ।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी |
सौजन्य : नारायण देसाई

३५४. पत्र : आनन्दीबाईको

२२ अगस्त, १९२७

चि० आनन्दीबाई,

स्त्रियोंको सामान्य शिक्षाके रूपमें अपनी मातृभाषा, मातृभाषा हिन्दी न हो तो हिन्दी, 'भगवद्गीता'का अर्थ समझने लायक संस्कृत, सामान्य अंकगणित, सामान्य लेखनकला, सामान्य संगीत और बच्चोंकी देखभाल करना, इतना ज्ञान तो होना ही चाहिए। इसके सिवा रुई [ धुनने आदि ] से लेकर बुननेतक की कलाका सम्पूर्ण ज्ञान भी मैं आवश्यक मानता हूँ। यह शिक्षा प्राप्त करते समय उसे ऐसा वातावरण मिलना चाहिए कि जिससे उसके चरित्रका निर्माण हो और वह समाजके दोषोंको पूरी तरह देख सके और उन्हें दूर कर सके । धार्मिक शिक्षाका उल्लेख मैंने अलगसे नहीं किया है क्योंकि वह तो अभ्याससे प्राप्त होती है और पढ़ाईमें ही शामिल है। सच तो यह है कि ऐसी शिक्षा शिक्षक अथवा शिक्षिकाके सत्संगसे ही प्राप्त की जा सकती है । यह शिक्षाक्रम बालिकाओंके लिए है। विधवा अथवा सधवाका शिक्षण एक अलग विषय है ।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी ।
सौजन्य : नारायण देसाई

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