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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जाता है - शरीरसे नहीं, मनसे । विचार ही कार्यका मूल है। विचार छोड़ दें तो कार्य भी छूट जाता है।

हमारे वियोगसे तुम्हें जितना दुःख हुआ है उतना ही मुझे हुआ हो और अभी तक होता हो तो? तुमने श्रेयको चुना है। मैंने भी उसीको पसन्द किया। उसीमें तुम्हारा, मेरा और सभीका कल्याण है। जो श्रेय है वह हमारे लिए प्रेय भी हो जाये, शिक्षाका यही परिणाम होना चाहिए। इसलिए यदि तुम्हें ऐसा लगता हो कि आश्रम में रहना श्रेयस्कर है तो फिर ऐसी कोशिश करो कि वह तुम्हें प्रिय भी लगने लगे । इसमें न अपने मनको धोखा देना और न मुझे। इतना जान लो कि तुम्हें जब आश्रममें ही रहना अच्छा लगने लगेगा तब मैं तुम्हें दूसरे स्थानपर भेजने के लिए तैयार रहूँगा ही। मुझे निःसंकोच लिखती रहना। भले ही मैं उसे समझ न पाऊँ और उत्तरमें भाषण लिख भेजूं। बड़ोंके भाषण सहन करना भी सीखना चाहिए ।

बापूके आशीर्वाद

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी ।
सौजन्य : नारायण देसाई

३६४. पत्र: एक गुजराती विद्यार्थीको

[२३ अगस्त, १९२७ के पश्चात् ][१]

यह सच है कि हमारे यहाँ उपवासकी महिमाका बखान किया गया है। पर कौनसे उपवासकी ? एक शास्त्रवचन यह है कि जो मनुष्य शरीरका दमन करता है परन्तु मनको मुक्त छोड़ देता है वह मिथ्याचारी है। उपवास करनेमें भी उद्देश्य तो मनका संयम करना ही है। जिसने मनको जीत लिया है वह उपवास करे या न करे, एक ही बात है । पर मनको जीतना ही तो कठिन है। शरीरका दमन करते- करते ही मनका दमन किया जा सकता है। उपवासके इस मर्मको समझकर जो आत्म- शुद्धिके लिए उपवास करते हैं वे वन्दनीय है ।

[ गुजरातीसे ]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी ।
सौजन्य : नारायण देसाई

  1. साधन-सूत्रमें यह २३-८-१९२७ के पत्रोंके बाद दिया गया है।