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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बातसे कुछ दुःखी भी हुआ कि मैसूरकी राजकीय पाठशालाओंमें भी विद्यार्थियोंको धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाती। मैं जानता हूँ कि कुछ लोग इस विचारके हैं कि सार्वजनिक पाठशालाओंमें केवल दुनियावी शिक्षा ही दी जानी चाहिए। मैं यह भी जानता हूँ कि भारत जैसे देशमें धार्मिक शिक्षाका प्रबन्ध करनेमें बड़ी कठिनाइयाँ हैं; क्योंकि इस देशमें संसारके अधिकांश धर्मोके लोग मौजूद हैं और एक धर्ममें ही अनेक सम्प्रदाय मौजूद हैं। परन्तु यदि भारत अपने-आपको आध्यात्मिक रूपसे दिवालिया घोषित नहीं करना चाहता तो उसे अपने यहाँके नवयुवकोंके लिए धार्मिक शिक्षाका प्रबन्ध करना कमसे-कम उतना आवश्यक तो समझना ही चाहिए जितना आवश्यक वह दुनियावी शिक्षाके लिए प्रबन्ध करना समझता है । यह बात बिलकुल सच है कि धर्म-ग्रन्थोंकी जानकारी रखना और धार्मिक आचरण, दोनों एक ही चीज नहीं हैं। परन्तु यदि हम अपने जीवनको धार्मिक नहीं बना सकते तो हमें कमसे-कम इतना तो चाहिए ही कि हम अपने बालक-बालिकाओंके लिए धार्मिक शिक्षाका प्रबन्ध करें। धार्मिक जीवनके अभाव में, ऐसा प्रबन्ध ही एक चीज है जिसपर हम सन्तोष कर सकते हैं। पाठशालाओंमें ऐसी शिक्षाका प्रबन्ध हो या न हो, पर हमारे देशके वयस्क विद्यार्थियोंको अन्य मामलोंकी भाँति धर्मके मामलेमें भी अपने-आप सीखने और करनेकी योग्यता विकसित करनी चाहिए। वे अपने वाद-विवाद क्लबों या आजकल कताई- क्लबोंकी तरह ही, धार्मिक शिक्षाके लिए भी अपनी कक्षाएँ शुरू कर सकते हैं ।

मैंने शिमोगामें कॉलेजिएट हाईस्कूलके विद्यार्थियोंकी सभा में अपने भाषणके दौरान वहाँ उपस्थित विद्यार्थियोंसे पूछा तो पता चला कि सौ से कुछ अधिक हिन्दू विद्यार्थियों- में मुश्किलसे आठ ही ऐसे थे, जिन्होंने 'भगवद्गीता' पढ़ी थी। जब उन आठ विद्यार्थियोंसे भी मैंने यह पूछा कि वे 'गीता' को समझते हैं या नहीं, तो किसीने भी हाथ नहीं उठाया। वहाँ पाँच या छः मुसलमान बालक भी थे । 'कुरान' पढ़नेके बारेमें उनसे पूछनेपर सभीने अपने हाथ उठा दिये, पर उनमें से सिर्फ एकने ही उसका अर्थ समझनेका दावा किया था। मेरी रायमें तो 'गीता' को समझना काफी आसान है। हाँ, उसमें कुछ ऐसी मूलभूत समस्याएँ पेश की गई हैं, जिनका समाधान निस्सन्देह बड़ा कठिन है। परन्तु मैं समझता हूँ कि 'गीता' का सामान्य अर्थ बड़ा ही स्पष्ट है । सभी हिन्दू सम्प्रदाय उसको प्रामाणिक ग्रन्थ मानते हैं। उसमें किसी भी प्रकारकी कट्टरता नहीं है। उसमें बड़े ही पुष्ट तर्कोंपर आधारित नीति-नियमोंकी एक पूरी संहिता संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत की गई है। 'गीता' हमारे हृदय और हमारी बुद्धि, दोनोंको तुष्ट करती है। इस तरह, उसमें दर्शन भी हैं और आस्था एवं भक्ति भी। उसका सन्देश सबके लिए है। भाषा अत्यन्त ही सरल है। लेकिन मेरा खयाल है कि भारत- की हर प्रादेशिक भाषामें उसका एक प्रामाणिक अनुवाद होना चाहिए और अनुवाद इस ढंगसे किये जाने चाहिए कि वे पारिभाषिक शब्दोंकी उलझनमें न फँसते हुए, 'गीता' के उपदेशोंको ऐसे ढंगसे प्रस्तुत कर दें कि साधारण पाठक उनको हृदयंगम कर सकें। मेरे कहनेका यह मतलब कदापि नहीं कि मूल ग्रन्थको कुछ प्रक्षिप्त किया जाये। क्योंकि, मैं तो फिर यही कहता हूँ कि मेरे विचारसे प्रत्येक हिन्दू बालक-