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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जब उनसे पूछा गया कि क्या आप लोग अपना अपराध स्वीकार करते हैं तो उन्होंने कहा कि “सरकारके कानूनकी रू से" तो हम अपराधी हैं, लेकिन खुद अपनी रायमें हम "अपराधी नहीं हैं।

यह असम्भव है कि इन वीर नवयुवकोंके प्रति हृदय में सहानुभूति महसूस न की जाये - इस कामके पीछे उनका जो मंशा था उसकी दृष्टिसे भी और उन्होंने मुकदमेके दौरान जिस आत्म-गरिमाका परिचय दिया है, उसका भी खयाल करके। मेरे सामने जो विवरण है, उसमें आगे कहा गया है कि अभियुक्तोंकी ओरसे कोई वकील नहीं था और उन्होंने खुद इस्तगासेके गवाहोंसे जिरहतक नहीं की। इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं दिखता कि जैसे-जैसे राष्ट्रीय चेतना बढ़ेगी ब्रिटेनके शौर्य के दुरुपयोग और बर्बरताके धृष्ट स्मारक-रूप इन मूर्तियोंके प्रति क्षोभकी भावना बढ़ती ही जायेगी । इसलिए, कोई सरकार चाहे जितनी शक्तिशाली हो, यदि उसमें समझदारी होगी तो वह लोगोंके मन में सालनेवाले ऐसे स्मारकोंको कभी भी कायम नहीं रखेगी, क्योंकि उन्हें कायम रखनेका मतलब होगा लोक-मतको ऐसी कार्रवाइयाँ करनेके लिए भड़काना जो लाख खेदजनक और निन्दनीय होते हुए भी सर्वथा औचित्यपूर्ण राष्ट्रीय भावनाकी घोर उपेक्षाके एक समुचित प्रत्युत्तरके रूप में सही ही मानी जायेंगी । और निरन्तर चुभते रहनेवाले इन शूलोंको निकाल फेंकने के प्रयत्न जब-जब विफल होंगे, कटुता कुछ और बढ़ेगी और हमारे तथा इंग्लैंडके बीचकी खाई और भी चौड़ी होती जायेगी । ये मूर्तियाँ मद्रास नगरपालिकाके अधिकारमें हैं। इन्हें हटवाना उसका फर्ज है।

क्या सत्य इतना सुन्दर हो सकता है ?

स्वामी आनन्दने ७ अगस्त, १९२७ के 'नवजीवन' में गुजरात-भरके लोगोंके वीरो- चित कार्यों के बारे में जानकारी जुटाई है। उसमें पेश किये गये शब्द-चित्रोंमें हम देखते हैं कि हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरेकी सहायता कर रहे हैं, मानो उनमें कभी कोई झगड़ा हुआ ही नहीं; दलित और दमनकर्ता दोनोंने एक ही घरमें शरण ले रखी है और एक ही तरहका खाना खाते हैं, लोग अपनेको बड़ी-बड़ी जोखिमोंमें डालकर एक-दूसरेकी रक्षा करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। इन शब्द-चित्रोंको पढ़ते हुए मैं बार-बार यही सोचता था कि क्या यह सब सच हो सकता है। फिर मुझे ध्यान आया कि मैं तो 'नवजीवन' पढ़ रहा हूँ और उसके स्तम्भोंमें अप्रामाणिक कहानियोंको स्थान नहीं दिया जाता, और फिर वहाँ स्वामी हैं जो यदि सम्भव हो तो इस विषयमें मुझसे कहीं अधिक सतर्क रहते हैं कि कोई संदिग्ध चीज शामिल न हो पाये। इन शब्द-चित्रों में हम देखते हैं कि भावनगरसे लेकर भड़ीचतक के विशाल विपद्ग्रस्त क्षेत्रके लोग किस अभूतपूर्व ढंगसे अपनी सहायता आप कर रहे हैं, अपने ऊपर विश्वास रखकर अपनी मुसीबतोंपर पार पाने में लगे हुए हैं और आपसमें एक-दूसरेकी सहायता कर रहे हैं। स्वामीने बिलकुल ठीक ही लिखा है कि "जनताने उन सभी गुणोंका परिचय दिया है जो राष्ट्रको महान् और स्वशासित बनाते हैं। " उनमें कहीं भी भय या घबराहटका नाम तक नहीं था, अगर कुछ था तो बस मृत्युसे जूझनेका एक गम्भीर संकल्प ही था । यदि यह विवरण सही है - मैं अब भी