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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हमारे भाई ऐसी संस्था बनाना ही नहीं चाहते। मेरी समझमें तो इस मुल्कका तीन-चौथाई धन अनीतिको ही कमाई है, और इसलिए वह पुण्यके काममें नहीं लगाया जाता। यह धन या तो शराबमें, या डॉक्टरके बिलमें,या सरकारी टैक्सोंमें या इन तीनोंमें निकल जाता है।

अगर हूबहू यही सूरत हो तो भी मैं इस भाईको धीरज और शान्तिपूर्वक काम करनेकी सलाह देता हूँ ।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २८-८-१९२७

३७५. दीक्षा कौन ले ?

जावरा रियासत में गुलाबबाई नामक ओसवाल जातिकी एक विवाहित महिलाने हिन्दीमें एक पत्रिका छपवाकर बँटवायी है। उससे मालूम पड़ता है कि उसके पतिने, जो छोटी उम्रका है, दीक्षा लेनेके इरादेसे घर छोड़ा है और अपनी सोलह बरसकी स्त्रीको इस तरहका पत्र लिखा है :

करीब दो सालसे मेरा दीक्षा लेनेका विचार है। मैं कुटुम्बकी आज्ञा बराबर माँग रहा हूँ। यहाँ आनेके बाद भी पांच-छह पत्र लिखे हैं, मगर इजाजत नहीं मिली। अब मैंने खुद ही दीक्षा लेनेका विचार किया है।

इस व्यक्तिकी साठ वर्षकी बूढी माँ है । जिन सज्जनने इस बारे में मेरे पास पत्रिका भेजी थी, उनसे और विवरण माँगनेपर नीचे लिखी बातें मालूम हुईं। वे लिखते हैं :

गुलाब मामूली पढ़ी-लिखी है, हिन्दी लिखना-पढ़ना जानती है। उसने अपने जो भाव बताये उनके अनुसार उसके एक मित्रने पत्रिका लिख दी और उसने छपवा ली। वह अपने भाईके साथ जाकर खुद ही छपवा लाई । पति साधारण हिन्दी लिखना-पढ़ना जानता है। कुटुम्बकी हालत नाजुक है। अभीतक उसे किसीने दीक्षा नहीं दी है।

मुझे उम्मीद है कि इस नौजवानको कोई दीक्षा नहीं देगा। इतना ही नहीं, वह खुद अपना धर्म समझ जायेगा छोटी उम्र में बुद्ध या शंकराचार्य जैसे ज्ञानी दीक्षा ले लें यह शोभाकी बात हो सकती है पर हरएक नौजवान ऐसे महापुरुषोंकी नकल करने लग जाये तो यह धर्मके लिए और अपने लिए शोभाके बजाय शर्मकी बात होगी। आजकल ली जानेवाली दीक्षामें कायरताके सिवाय और कोई बात देखने में नहीं आती और इसी कारण साधु भी तेजस्वी होनेके बजाय ज्यादातर हम जैसे ही दीन और अज्ञानी होते हैं। दीक्षा लेना बहादुरीका काम है और उसके पीछे पिछले जन्मके बलवान संस्कार या वर्तमान जीवन में मिला हुआ अनुभव-ज्ञान होना चाहिए । बूढ़ी