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पत्र : मणिलाल और सुशीला गांधीको

माँ और जवान स्त्रीका कुछ भी विचार किये बिना दीक्षा लेनेवाले में इतना अधिक वैराग्य होना चाहिए कि आसपासका समाज उसे समझे बिना न रहे। ऐसी कोई भी शक्ति इस दीक्षा लेनेवाले नौजवान में नहीं दीखती ।

लेकिन दीक्षा लेनेके लिए उत्सुक नौजवान दीक्षाका अधिक विस्तृत अर्थ क्यों नहीं करते? अभी तो गृहस्थधर्म पालनेवाले भी बहुत थोड़े देखे जाते हैं। घर बैठे दीक्षा-जैसी जिन्दगी बिताने में कुछ कम साहस नहीं चाहिए, और सच्ची कसौटी तो उसी में होती है। बहुत से दीक्षित लोगोंको में जानता हूँ, और वे बेचारे सरलतासे मंजूर करते हैं कि न उन्होंने प्रमादको जीता है और न पाँच इन्द्रियोंको । दीक्षा लेकर उन्होंने सिर्फ अपने खाने-पहननेकी सहूलियत बढ़ाई है। सन्तोषके साथ, पवित्र रहकर, सचाईकी रक्षा करते हुए गरीबीसे घरका काम चलाना पराई स्त्रीको माँ-बहन समझना, अपनी स्त्रीके साथ भी मर्यादामें भोग भोगना, शास्त्रों आदिका अध्ययन करना और भरसक देशकी सेवा करना कोई छोटी-मोटी दीक्षा नहीं है। दीक्षाका अर्थ है आत्मसमर्पण । आत्मसमर्पण बाहरी ढोंगसे नहीं होता। यह मनकी चीज है और इस सिलसिलेमें कुछ बाहरी आचार भी जरूरी हो जाता है, लेकिन वह शोभा तभी पाता है जब वह भीतरी शुद्धि और भीतरी त्यागकी सच्ची निशानी हो । उसके बिना वह सिर्फ बेजान चीज है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २८-८-१९२७

३७६. पत्र : मणिलाल और सुशीला गांधीको

बंगलोर
२८ अगस्त, १९२७

चि० मणिलाल और सुशीला, आज स्वयं लिखनेके लिए मेरे पास समय नहीं है। भोजन करते समय ही में यह पत्र लिखवा रहा हूँ। तुम्हें तार भेजने के पश्चात् मैंने एक भी डाक नहीं छोड़ी। श्री एन्ड्रयूज यहीं हैं। अगली डाकसे अधिक लिखूंगा। सुशीलाका स्वास्थ्य अवश्य सुधरना चाहिए ।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती (जी० एन० ४७३८) की फोटो-नकलसे ।