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३७७. भाषण : बंगलोरमें स्वयंसेवकोंके समक्ष[१]

२८ अगस्त, १९२७

प्रार्थना के बाद प्रत्येक स्वयंसेवकने बारी-बारीसे आकर गांधीजीके हाथोंसे 'भगवद्- गीता ' की उनके द्वारा हस्ताक्षरित प्रतियाँ लीं। . . . गांधीजीकी मंगलवाणीका कन्नड़में वाक्यशः अनुवाद प्रस्तुत करते हुए गंगाधररावकी वाणी भावातिरेकसे काँप-काँप जाती थी ।

संसारका सारा काम संयोगसे नहीं चलता। हम लोग ठीक इसी समय [ चार बजे सुबह ] और आज ही के दिन यहाँ क्यों मिले; और फिर संसार में इतने सारे ग्रंथ हैं पर एक 'गीता' ही क्यों आपको भेंट देनेके लिए चुनी गई ? और फिर इस मौकेपर हमने 'गीता' के तीसरे अध्यायका ही पाठ क्यों किया? तीसरा अध्याय हमने आपके खयालसे नहीं चुना । आजके दिन हम तीसरे अध्यायका पाठ करते ही हैं। परन्तु किसी सूत्रधारने इन सब चीजोंको एक ही सूत्रमें पिरो दिया है, और हम देखेंगे कि ये सब चीजें एक-दूसरेके बिलकुल अनुकूल ही रही हैं। सच्चा सेवक सूर्योदय से पहले उठता है और नित्य-कर्मसे निबटकर, ईश-प्रार्थनासे अपना दिन शुरू करता है। आप ऐसा मानकर चलिए कि आपका सेवाका जीवन इसी शुभ घड़ीसे आरम्भ हुआ है । आपके द्वारा मेरे प्रति दिखाई अनन्य श्रद्धा तो, आज आप सेवाका जो उच्चतर जीवन आरम्भ कर रहे हैं, उसका निमित्त मात्र थी। और 'भगवद्गीता' आपके लिए आचरणके नियम प्रस्तुत करती है। जब भी आप किसी कठिनाई, संशय या निराशामें पड़ें या संतप्त हो उठें तब आप इस धर्म-संहिता और सार-ग्रंथका सहारा ले सकते हैं। और आपके लिए इस तीसरे अध्यायसे अधिक प्रेरणास्पद और हो भी क्या सकता है, जिसका पाठ हम लोगोंने आज सुबह किया है ? इसमें कहा गया है कि ईश्वरने मनुष्यकी रचना की और साथ ही उसे यज्ञका कर्त्तव्य भी सौंप दिया। यह शब्द जिस धातुसे बना है उसका अर्थ होता है शुद्ध करनेवाला । भगवान्ने यह भी कहा है कि यज्ञसे ही तुम समृद्धिको प्राप्त होगे।[२] इस प्रकार यज्ञका अर्थ है सेवा, और गीता' में कहा गया है कि जो सिर्फ अपने लिए कर्म करता है, वह चोरी करता है । 'गीता' में कहा है कि 'यज्ञके द्वारा तुम देवताओंको प्रसन्न करो और वे प्रसन्न होनेपर तुम्हें तुम्हारे कर्मका समुचित फल देंगे[३]। थोड़ा और गहरेमें उतरिए तो यज्ञका अर्थ है -- दूसरोंका जीवन सुरक्षित बनानेके लिए अपनी बलि देना । दूसरे लोग सुखसे रह सकें, इसके लिए हमें कष्ट भोगनेको तैयार रहना चाहिए।

  1. महादेव देसाईके लेख "विदाई " से।
  2. अनेन प्रसविष्यध्वमेष बोऽस्त्विष्टकामथुक् । ३-१०
  3. देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । ३-११