पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/४८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४५
भाषण : बंगलोरमें स्वयंसेवकोंके समक्ष

सेवा और प्रेमकी उच्चतम अवस्था वही है जिसमें मनुष्य अपने सहमानवोंकी खातिर अपने जीवनकी बलि चढ़ा देता है। इस प्रकार प्रेमकी वह उच्चतम अवस्था अहिंसा ही है, और यही सेवाका उच्चतम रूप है। जीवन और मृत्युके बीच सतत संघर्ष चलता रहता है, परन्तु जीवन और मृत्युका सार अस्तित्वहीनताकी अवस्था नहीं, बल्कि जीवन ही है। इसलिए कि जीवन तो मृत्युके बावजूद कायम रहता है । अहिंसाके सर्वशक्तिमान् होनेका यह एक प्रत्यक्ष प्रमाण है। और अहिंसाकी यह विजय यज्ञके द्वारा ही सम्भव है। इस प्रकार यज्ञ और सेवाके नियमसे बड़ा और कोई नियम नहीं है। यही नियम स्वयंसेवकके लिए है। आप जिससे सबसे अधिक प्रेम करते हैं, उसके लिए, यहाँतक कि मेरी खातिर भी आपको किसी दूसरेसे घृणा करनेकी जरूरत नहीं और यदि आप उसकी खातिर किसीसे घृणा करते हैं तो फिर आपका प्रेम, प्रेम नहीं रह जायेगा; आपकी सेवा, सेवा नहीं रह जायेगी । वह तो एक मोह-मात्र होगा। यदि आपने मोहके कारण मेरी सेवा की है तो वह सेवा निष्फल होगी। पर मैं जानता हूँ कि आपने मोहके कारण मेरी सेवा नहीं की है। आप मुझे उसी रूप में जानते हैं, जो आपने सुन रखा है। आपने मुझे पहले कहीं देखा- तक नहीं था, और पिछले चार महीनों में आपने कभी मेरे पास आकर मुझसे धन्य- वादके दो शब्द भी नहीं सुने । आपने जो सेवा की, वह स्वार्थ-रहित और सच्चे मनसे की गई सेवा है। मैं चाहता हूँ कि आपकी यह सेवा आपको उनकी सेवा करनेकी प्रेरणा दे जिनकी सेवामें में स्वयं लगा हूँ, अर्थात् यह आपको दरिद्रनारायण- की सेवाकी प्रेरणा दे। और आज हमने जिस अध्यायका पाठ किया है, उसमें चूँकि मुझे स्पष्ट संकेत मिला है कि भारत में एक चरखा ही है जो सार्वजनीन सेवाका सर्वोत्तम माध्यम बन सकता है, इसलिए मैंने देशके सामने चरखा प्रस्तुत किया है। जब आपको चरखेपर अपना विश्वास शिथिल पड़ता दिखाई दे, आप 'गीता'का पाठ करके उसमें फिरसे दृढ़ता ला सकते हैं। मैं आपमें से किसीको भी व्यक्तिगत तौरपर नहीं जानता, पर आपने जो सेवा की है, उसे में भली-भाँति जानता हूँ । उसका फल आपको देना मेरा काम नहीं, वह तो मेरी शक्ति से बाहरकी बात है और यही ठीक भी है। फल तो ईश्वर ही दे सकता है और ईश्वरका विधान है कि निःस्वार्थ भावसे की गई सच्ची सेवा सदा फलवती होती है।

[अंग्रेजीसे ]
'इंडिया, ८-९-१९२७