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भाषण : बंगलोरके नागरिकोंकी सभामें

सम्बद्ध सभी कामोंका संगठन नहीं किया जाता तबतक सहकारिताके क्षेत्रमें किये गये सभी प्रयास अधूरे रहेंगे। और यदि आप अपने पहननेके लिए खादीका इस्तेमाल करेंगे तो उसका मतलब गाँव में बसनेवाले अपने भाइयोंके साथ सहकार करना ही होगा ।

यह तो ठीक है कि हमारे देहातोंकी समृद्धिका केन्द्र चरखा ही है, पर उसके लिए और भी चीजें जरूरी हैं। यदि मवेशी हमारे लिए आर्थिक रूपसे बोझ बन जायें तो हमारा जीवन दूभर हो जायेगा । आपके महाराजा साहबने जयन्तीके अवसरपर भेंट किये आपके मानपत्रके उत्तरमें भाषण करते हुए इन मूक प्राणियोंकी खातिर आपसे बड़ा मार्मिक अनुरोध किया था। पता नहीं आप सभीका ध्यान उसपर गया या नहीं। मैं उनके सुन्दर शब्दोंको उद्धृत कर रहा हूँ :

ईश्वरसे मेरी यही प्रार्थना है कि आपमें ऐसी ही भावना सृष्टिके मूक प्राणियोंके प्रति भी आये और हमें वह दिन देखनेको मिले जब पशुओंके साथ, विशेषकर जिन पशुओंको हम पवित्र मानते हैं उनके साथ लोग उनकी इस मजबूरीका खयाल करके कि वे अपनी भावनाएँ व्यक्त नहीं कर सकते, उत्तरो-त्तर अधिकाधिक प्रेमपूर्ण व्यवहार करने लगे।

इस अनुच्छेदको पढ़कर मुझे लगता है कि यहाँ महाराजा साहबने सूक्ष्म रूपसे अपनी यह अभिलाषा भी व्यक्त की है कि उनकी मुसलमान, ईसाई और आदि- कर्नाटक प्रजा भी अपनी ही इच्छासे गाय और उसकी सन्ततिको नष्ट होनेसे बचाये । परन्तु मेरा विनम्र मत यह है कि गो-रक्षाकी इस समस्या के समाधानके लिए बहुत सोच-समझकर कठिन श्रम करनेकी जरूरत है। मुझे पूरा भरोसा है कि ऐसी परिस्थिति पैदा की जा सकती है कि गो-वध आर्थिक रूपसे घाटेका सौदा बन जाये । यह सम्भव है। आज तो गोवध निस्सन्देह एक मुनाफेका धन्धा है। यह एक ऐसी त्रुटि जिसका कोई भी गैर-सरकारी संस्था पूरी तरह परिमार्जन करनेमें सफल नहीं हो सकती। यह काम तो मुख्यतः सरकारको ही करना पड़ेगा। इसके लिए लोगों- को पशु-पालन, डेरी फार्मिंग और साँड़ोंकी अच्छी नस्लें तैयार करना सिखाना पड़ेगा । मेरा विनम्र मत यह है कि देशके पशु-धनके संरक्षणकी पूरी समस्याके प्रति एक दृढ़ और सुविचारित नीति अपनाना राज्यका कर्तव्य है। अपने यहाँके बच्चों और अपनी समस्त प्रजाको पौष्टिक और सस्ता दूध सुलभ कराना, में राज्यका एक प्राथमिक कर्त्तव्य मानता हूँ। ब्लैचफोर्डके इस कथनसे में बिलकुल सहमत हूँ कि दूधकी कीमत और किस्मका स्तर बिलकुल उसी तरह सुनिश्चित किया जाना चाहिए, जैसे कि डाक- टिकटोंका है। मैं समझता हूँ कि आपमें से अधिकांश लोग नहीं जानते कि मैसूर में मरे हुए पशुओंकी खालका क्या होता है। यदि मेरी तरह आप भी इस समस्याका अध्ययन करें तो आपको ऐसी बहुत-सी चीजोंका पता चलेगा, जिनसे हृदयको दुःख पहुँचता है। क्या हमारे लिए यह शर्मकी बात नहीं कि हमारे जूते बनानेके लिए तो मवेशियोंको काटा जाये और, जैसा कि मुझे मालूम हुआ है, लगभग नौ करोड़ रुपयेकी मरे हुए मवेशियोंकी खाल देशसे बाहर भेजी जाये ? यदि हम चाहें तो चमड़ा कमानेके धन्धेमें देशके हजारों रासायनिक विशेषज्ञोंको खपाया जा सकता है। उससे