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३८२. विदाई-भाषण : बंगलोरकी प्रार्थना सभामें[१]

२८ अगस्त, १९२७

सभाके पश्चात् प्रार्थना हुई।[२] वैसे कुमार पार्कमें हमारे निवासके दिनोंमें प्रार्थना-सभा एक परिपाटी बन गई थी। पर अन्तिम दिनकी सभा तो एक अविस्मरणीय अनुभव बन गई क्योंकि उसमें श्री एन्ड्रयूज और बियरम दम्पती भी उपस्थित थे। बियरम दम्पतीने "व्हेन आई सर्वे द वन्ड्रस क्रास " (जब में अद्भुत सलीबको देखता हूँ) वाला भजन सुनाया, जिसे सुनकर गांधीजीने कहा कि उनको ऐसा लगा, जैसे वे प्रिटोरियामें हों, जहाँ उन्होंने यह भजन पहली बार सुना था । और गांधीजीका विदाई-भाषण भी अविस्मरणीय था। गांधीजीने शुरूमं श्रोताओंसे पूछा : "आपमें से कितने लोग यहाँ नियमित रूपसे आते रहे हैं ? " इसपर अधिकांश लोगोंने अपने हाथ उठा दिये ।

मुझे बड़ी खुशी हुई कि आप आते रहे हैं। प्रार्थना मेरे लिए हर्षके साथ-साथ मेरे सौभाग्यकी भी बात रही है क्योंकि मैंने इसका उन्नतिकारी प्रभाव महसूस किया है। मेरा अनुरोध है कि आप इस परिपाटीको जारी रखें। आप पद न जानते हों, संस्कृत और श्लोक आदि भी न जानते हों तो कोई बात नहीं। रामनाम तो सभी जानते हैं; वह तो प्राचीन कालसे हमें विरासत में मिला है। मैं आपको बतलाता हूँ कि आपको सामूहिक प्रार्थनाकी यह परिपाटी जारी क्यों रखनी चाहिए। इसलिए कि मनुष्य एक व्यक्ति होने के साथ-साथ सामाजिक प्राणी भी है, समाजका सदस्य है । व्यक्तिके रूप में चाहे तो वह निद्राके समयको छोड़कर शेष सारा समय प्रार्थना-रत रह सकता है, परन्तु समाजके सदस्य के रूप में उसे सामूहिक प्रार्थना में भी शामिल होना चाहिए। मैं आपको बतलाता हूँ कि कमसे-कम मैं तो जब भी एकान्त पाता हूँ, प्रार्थना कर लेता हूँ, परन्तु यदि सामूहिक प्रार्थना न हो तो मुझे बड़ा अकेलापन लगता है। मैं आपमें से चन्द लोगोंको ही पहले व्यक्तिगत रूपसे जानता था और अब भी कुछ को ही जानता हूँ। परन्तु मेरे लिए इतना जानना ही काफी है कि मैं आपके साथ शामकी प्रार्थनामें सम्मिलित होता रहा हूँ । बंगलोर छोड़ने के बाद, मेरे मन में जिन बातोंकी स्मृति बनी रहेगी उनमें प्रार्थना सभाका एक प्रमुख स्थान होगा। बंगलोर छोड़नेकी जो कसक मेरे मन में होगी वह दूसरे स्थानपर पहुँचकर वहाँ प्रार्थना सभा शुरू कर देने पर दूर हो जायेगी । जो मानव-मात्रको भाई और ईश्वरको अपना पिता समझता है, उसे तो वह जहाँ जाये वहीं सामूहिक प्रार्थनाका अवसर मिल जाना चाहिए, और उसके मन में बिछुड़ने या अलग होनेकी पीड़ा नहीं होनी चाहिए।

  1. महादेव देसाईके लेख “विदाई" से ।
  2. देखिए पिछला शीर्षक।