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भाषण : वेल्लूरके वूरीज़ कालेज में

ऐसा लगता है कि उनमें अभी बहुत-सी कमियाँ हैं। मैं मानता हूँ कि आप मेरे कहने- का अभिप्राय साफ-साफ समझ रहे होंगे। हमारी भाषाओंमें विद्यार्थी शब्दका एक बहुत सुन्दर पर्याय है- ब्रह्मचारी विद्यार्थी तो एक गढ़ा हुआ शब्द है; और ब्रह्मचारीमें जितना अर्थ समाया हुआ है, उसे यह व्यक्त नहीं करता । मुझे उम्मीद है कि ब्रह्मचारी शब्दका अर्थ तो आप जानते ही होंगे। इसका अर्थ है, ब्रह्मका अन्वेषक; अर्थात् ऐसा आचरण करनेवाला व्यक्ति जो उसे कमसे कम समय में ईश्वरके अधिकसे- अधिक निकट ले जा सके। और विश्वके तमाम महान् धर्म, चाहे और बातोंमें उनमें जितना अन्तर हो, इस तात्त्विक विषयके सम्बन्धमें सर्वथा एक हैं कि कोई भी स्त्री या पुरुष, जिसका हृदय शुद्ध नहीं है, परमात्माको नहीं पा सकता। हम वेदोंका चाहे जितना अध्ययन करें, चाहे जितना पाठ करें, संस्कृत, लैटिन, ग्रीक आदि तमाम भाषाओं और विषयोंका हमें चाहे जितना ज्ञान हो, यदि वे हमारे हृदयको सर्वथा शुद्ध और पवित्र बनाने में सहायक नहीं होते तो सब बेकार है। समस्त ज्ञानका उद्देश्य चरित्र निर्माण होना चाहिए ।

शिमोगामें एक अंग्रेज भाई मुझसे मिले। उन्हें मैं पहलेसे नहीं जानता था। उन्होंने मुझसे पूछा कि यदि भारत वास्तव में आध्यात्मिक दृष्टिसे समुन्नत देश है तो फिर ऐसा क्यों है कि मुझे विद्यार्थियोंमें ईश्वरका ज्ञान प्राप्त करनेकी सच्ची ललक नहीं दिखाई देती, बहुत-से विद्यार्थी इतना भी नहीं जानते कि 'भगवद्गीता' क्या है।[१] उन्होंने जो-कुछ देखा था, उसका जो कारण और सफाई मुझे सही लगी, वह कारण और सफाई मैंने उनके सामने पेश कर दी। लेकिन, मैं आपको वैसा कोई कारण नहीं बताना चाहता और न इस भारी और गम्भीर दोषको कोई सफाई देकर छिपाना ही चाहता हूँ। यहाँ मेरे सामने उपस्थित विद्यार्थियोंसे में सबसे पहले आग्रहपूर्वक यह अनुरोध करूँगा कि आपमें से हरएक अपने हृदयको टटोलकर देखे और जहाँ-कहीं आपको ऐसा लगे कि मेरा कहना ठीक है, वहाँ अपनेको सुधारकर अपने जीवनको नये सिरेसे गढ़ना शुरू कर दे। आपमें से जो लोग हिन्दू हैं - -- और बहुत बड़ी तादाद तो हिन्दुओं- की ही है -- उनसे मेरी विनती यह है कि आप 'गीता' के सन्देशको, जो अत्यन्त सरल, सुन्दर और मेरे लिए तो सीधे हृदयको छूनेवाला है, समझनेकी कोशिश करें। जिन लोगोंने अपने हृदयको शुद्ध बनाने के लिए वास्तव में सत्यका अन्वेषण करनेका प्रयत्न किया है, उनका अनुभव और मेरा खयाल है, मैं कह सकता हूँ कि उन सबका निरपवाद अनुभव यही रहा है कि जबतक इस प्रयत्न के साथ-साथ हम सर्वशक्तिमान्से सम्पूर्ण हृदयसे प्रार्थना नहीं करते तबतक यह प्रयत्न निरर्थक है। इस लिए हम और चाहे जो करें, ईश्वर में अपनी आस्था न डिगने दें। इसे मैं आपको तर्क द्वारा नहीं समझा सकता, क्योंकि वास्तव में यह एक ऐसी चीज है जो तर्क- बुद्धिसे परे है। लेकिन, मैं चाहता हूँ कि आप अपने अन्दर सच्ची विनयकी भावना उत्पन्न कीजिए और संसारके इतने सारे धर्मोपदेशकों, ऋषि-मुनियों और अन्य लोगोंको

  1. देखिए“ विद्यार्थी और गगीता ", २५-८-१९२७ ।