पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/५०३

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३९२. सच्चा श्राद्ध

एक भाईने रंगूनसे चरखेके प्रचार के लिए पच्चीस रुपये भेजते हुए लिखा है:[१] पत्रमें व्यक्तिगत ढंगकी बहुत-सी बातें कही गई थीं, जिन्हें मैंने छोड़ दिया है। यद्यपि युवावस्था में मैंने खुद भी श्राद्ध-संस्कार किये हैं, लेकिन मैं उनके धार्मिक महत्त्वको नहीं समझ पाया हूँ । इस तरहका यह पहला ही पत्र मुझे मिला हो, सो बात नहीं है। लेकिन, हिन्दू धर्म में लगभग सर्वत्र प्रचलित रीति-रिवाजोंके पीछे छिपे अर्थको यदि सचमुच कोई अर्थ छिपा हो तो -- मैं समझ नहीं पाया हूँ, इसलिए अबतक मैंने इन पृष्ठोंमें उनके बारेमें कुछ नहीं कहा है। लेकिन, जो नियम पत्र- लेखकने अपनाया है, वह मुझे ठीक लगा है। हम अक्सर रूढ़िगत संस्कारोंको चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं -- भले ही उनमें हमारा कोई विश्वास न हो, वे हमारे लिए कोई अर्थ न रखते हों। जिन छोटी-छोटी बातोंमें स्वयंको या दूसरोंको धोखा देनेकी कोई आशंका न हो, उनमें रूढ़िका पालन करना प्रायः वांछनीय बल्कि आवश्यक भी होता है। लेकिन, धर्मसे सम्बन्धित विषयोंमें और खासकर वहाँ, जहाँ हमारा अन्तर्मन निश्चित रूपसे रूढ़ि-पालन के खिलाफ हो और जहाँ स्वयं अपनेको और अपने पड़ोसि- योंको भी धोखा देनेकी आशंका हो, रूढ़िका पालन करना पतनकारी है। आज हमारे बीच ऐसे अनेक धार्मिक विधि-विधान प्रचलित हैं, जिनका सुदूर अतीत में चाहे जो अर्थ और महत्त्व रहा हो, किन्तु आजकी पीढ़ी के लिए तो उनका कोई अर्थ, कोई महत्त्व नहीं है। इसमें सन्देहकी कोई गुंजाइश नहीं है कि इस पीढ़ीके लिए पुराने विधि-विधानोंको नया रूप, बल्कि नया अर्थ भी देकर नया रास्ता बनाना आवश्यक है। अपने माता-पिताकी स्मृतिको ताजा रखने और उसका सम्मान करनेका विचार छोड़ना तो नहीं ही है। लेकिन, उसके लिए उन पुराने रीति-रिवाजोंको कायम रखना भी जरूरी नहीं है, जिनमें अब कोई तत्त्व नहीं रह गया है और इसलिए जिनका हमपर कोई असर भी नहीं होता। इसलिए जो लोग चाहते हैं कि वे सिर्फ सही काम ही करें और आत्म-प्रवंचनासे मुक्त हो जायें उनके सामने में पत्र लेखकका यह उदाहरण रख रहा हूँ |

[ अंग्रेजीसे ]

गंग इंडिया, १-९-१९२७

  1. पत्रका अनुवाद यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकने लिखा था कि १८ अप्रैल, १९२७ को उसके पिताका देहान्त हो गया था, लेकिन उसने लोगोंके आग्रहके बावजूद श्राद्ध कर्म करनेसे इनकार कर दिया, क्योंकि उसे प्रचलित श्राद्ध-पद्धतिमें विश्वास नहीं था। उसका कहना था कि इस संस्कारका मूल उद्देश्य परमार्थ ही हो सकता है। किन्तु, साथ ही वह गांधीजोके इस कथनमें विश्वास रखता था कि दानके अधिकारी तो सिर्फ अंधे-अपंग और ऐसे निर्धन ब्राह्मण हैं जो सद्विद्याका प्रचार करते हैं। (देखिए खण्ड ३३) उसे चरखा-कार्य सबसे बड़ा परमार्थ-कार्य लगा और इसलिए उसने गांधीजीके पास उक्त रकम भेज दी।