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३९३. स्वास्थ्य-रक्षा कैसे करें

पोलैंडवासी प्रोफेसर महोदय, जिनसे पाठक अब परिचित हो चुके होंगे, मेरी बीमारीकी चर्चा करते हुए लिखते हैं:

'यंग इंडिया' में मैं आपकी बीमारी और जेलरोंसे[१] आपकी बातचीतके बारेमें पढ़ता रहा हूँ। अब मैं आपको अपना अनुभव सुनाता हूँ कि इस तरह स्वास्थ्यमें एकाएक भारी गिरावट आ जानेसे कैसे बचा जा सकता है। सितम्बरसे मईतक पिछले नौ महीनोंमें मैंने पोलैंड-भरमें ४० नगरोंमें जाकर १०० दिन व्याख्यान दिये हैं। प्रतिदिन तीनसे लेकर सात घंटेतक बोला हूँ । जब में श्रोताओंके सामने खड़ा होता हूँ तो ६४ वर्षका होते हुए भी मैं ऐसा महसूस करता हूँ, जैसे २४ वर्षका होऊँ । मेरे नियम ये हैं :

१. किसी प्रकारकी चिन्ता न करना | सर्वशक्तिमान् ईश्वर सबकी चिन्ता करता है और उसकी इजाजतके बिना पत्ता भी नहीं हिलता। मैं उसका प्रधान सेवक नहीं हूँ, सिर्फ एक अदना-सा चाकर-भर हूँ, जिसका अपना एक निश्चित काम है, जिसे उस कामकी, संसारके विशाल कार्य-व्यापारके उस छोटे-से हिस्सेकी फिक्र करनी है। यदि पृथ्वीपर कहीं कोई भूकम्प आता है या बाढ़ आती है, अथवा अकाल पड़ता है तो अमर आत्माको कोई वास्तविक क्षति नहीं पहुँच सकती; ऐसा नहीं हो सकता कि कोई कष्टमें पड़े और उसे ईश्वर द्वारा पहलेसे निर्धारित कुछ-न-कुछ लाभ न हो; और फिर सर्वत्र ईश्वरके सेवक मौजूद हैं जो कष्टमें पड़े लोगोंको उतनी सहायता करते हैं जितनी सहायता ईश्वर उनसे करवाना चाहता है। इसलिए, चिन्ता आस्थाकी कमजोरी है और मेरी आस्था चूंकि अनन्त है, इसलिए मुझे कोई चिन्ता हो ही नहीं सकती।

२. खूब सोना: जब कभी में कामपर नहीं होता, हर क्षण सोता रहता हूँ, यहाँतक कि दिनमें कई-कई बार कुछ-कुछ मिनट भी सो लेता हूँ । सोनेसे पहले में बराबर प्रार्थना करता हूँ कि प्रभु ईसा, मुझे ज्ञानका प्रकाश दो, बल दो और आनन्द दो। इस प्रार्थना के साथ मुझमें आनन्द, प्रकाश और शक्तिका एक स्पष्ट प्रतिरूप उभरता है और ऐसी निद्रा प्रार्थनाके समान, परमेश्वरसे साक्षात्कार करानेवाली और ताजगी देनेवाली होती है। जब मैं ऐसी निद्रासे जागता हूँ तो मुझे ठीक-ठीक मालूम रहता है कि मुझे क्या करना और फिर जो करना है, उसे प्रसन्नतापूर्वक करता हूँ ।

  1. तात्पर्यं गांधीजीकी बीमारीके दिनोंमें उनकी देखरेख करनेवाले उन मित्रोंसे है जो उनके स्वास्थ्यके ख्यालसे उनपर कुछ पावन्दियाँ लगाये रखते थे।