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स्वास्थ्य-रक्षा कैसे करें

प्रोफेसर साहबने एक तीसरा नियम भी बताया है, जिसका सम्बन्ध उपवास और आहारसे है। लेकिन, इसके बारेमें उन्होंने पूरी जानकारी नहीं दी है, इसलिए मैंने उनसे बाकी जानकारी भेजनेको कहा है। मिलनेपर ही इस नियमको पाठकोंके सामने रख सकूँगा। लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि चिन्ता न करने और सोनेकी आवश्यकतासे सम्बन्धित उपर्युक्त दो नियम सुनहले नियम हैं। शरीरको जितना चिन्ता खाती है उतना और कुछ नहीं, और जिसका ईश्वर में विश्वास है उसे तो किसी बातकी चिन्ता करनेमें लज्जाका अनुभव होना चाहिए। इसमें सन्देह नहीं कि यह एक कठिन नियम है। इसका सीधा-सादा कारण यह है कि ईश्वरपर अधिकांश लोगोंका विश्वास या तो एक बौद्धिक विश्वास है या अंधविश्वास, अर्थात् किसी परिभाषातीत शक्तिका एक अंधविश्वासपूर्ण भय । लेकिन, चिन्तासे सर्वथा मुक्त होने के लिए ईश्वरमें जीवन्त और सम्पूर्ण विश्वास जरूरी है। ऐसा विश्वास सहज ही नहीं आता। यह किसी पौधेकी तरह धीरे-धीरे विकसित होता है, इस ढंगसे कि उस विकासको देख पाना लगभग असम्भव होता है। उस पौधेको बराबर सच्ची प्रार्थनाके साथ-साथ बहनेवाले आँसुओंसे सींचते रहना पड़ता है। वे आँसु एक प्रेमीके आंसू होते हैं, जो अपने प्रेमपात्रसे एक क्षणका भी वियोग नहीं सह सकता या वे उस पश्चात्तापी व्यक्तिके आँसू होते हैं जो जानता है कि निश्चय ही उसमें कोई कलुष शेष है जो उसे अपने प्रेमपात्रसे वियुक्त रख रहा है।

चाहे जिस समय सो जानेकी क्षमता वृद्धावस्थाकी आवश्यकता-सी जान पड़ती है। जहाँ पहला नियम युवा-वृद्ध सभीपर लागू होता है, सोनेसे सम्बन्धित नियमका पालन नौजवानोंको नहीं करना चाहिए। इसका अधिकार तो सिर्फ शिशुओं और वृद्धोंको ही है। और ऐसी मीठी और निर्दोष नींद के लिए यह तो आवश्यक है ही कि हमारे जीवनका स्वर उस अनन्तके स्वरका अनुवर्ती रहे। इसे कोई आलसी या अफीमचीकी नींद समझनेकी भूल न करे। यह तो खोई हुई शक्ति प्राप्त करनेके लिए प्रकृति द्वारा दी गई एक ओषधि है, वृद्धावस्थामें जल्दी ही थक जानेवाले मस्तिष्क के लिए एक प्रकारका पोषण है।

[ अंग्रेजीसे ]

यंग इंडिया, १-९-१९२७