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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सौ रुपयेका आपका चेक में अखिल भारतीय चरखा संघके कोषाध्यक्षके पास भेज रहा हूँ।

हृदयसे आपका,

डॉ० कैलाशनाथ काटजू
९, एडमंटन रोड
इलाहाबाद

अंग्रेजी (एस० एन० १३२७५) की फोटो-नकलसे।

३९६. पत्र : गुलजार मुहम्मद 'अकील ' को

वेल्लूर
१ सितम्बर, १९२७

प्यारे दोस्त,

पिछले महीनेकी १९ तारीखका आपका खत मिला। में 'यंग इंडिया' में प्रका- शित लेखकी प्रति इसके साथ भेज रहा हूँ। आपने मेरे पास जो उद्धरण भेजे हैं वे किसी भी तरह या किसी भी ढंग से आपके दावेको साबित नहीं करते। मतलब यह कि उनसे यह साबित नहीं होता कि न्यायमूर्ति दिलीपसिंहके मनमें मुसलमानोंके प्रति किसी भी किस्मका कोई पूर्वाग्रह था, या यह कि पूर्वाग्रह न होते हुए भी उन्होंने एक ऐसा फैसला दे दिया जिसकी सोलह आने सचाईपर उनको खुद विश्वास नहीं था। कानूनका अर्थ लगाने के बारेमें दूसरे न्यायाधीशोंकी राय उनसे नहीं मिली, यह तो कोई नई बात नहीं। भारत में ऐसा अक्सर होता रहा है, और भारत में ही क्यों, सारी दुनियामें। दुनिया जबतक कायम रहेगी तबतक लोग पूरी ईमानदारी बरतते हुए भी एक ही कानून के अलग-अलग अर्थ निकालते ही रहेंगे। और आपके भेजे उद्धरणोंमें से एक तो सीधे-सीधे मेरी इस रायपर ही मुहर लगाता है कि न्यायमूर्ति दिलीपसिंहके मन में कोई भी पूर्वाग्रह नहीं था। मैं अब भी इस रायपर कायम हूँ कि 'रँगीला रसूल' को लेकर जो इतना सारा हल्ला-गुल्ला मचाया गया है, उतनेकी जरूरत ही नहीं थी, उससे बचा जा सकता था और यह सब बुरा हुआ । पर मैं आपको पहले भी लिख चुका हूँ[१] कि जबतक मुझे बिलकुल जरूरी नहीं लगने लग जायेगा तबतक में इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता।

अंग्रेजी (एस० एन० १२३९०) की माइक्रोफिल्मसे।

  1. ७ अगस्तके पत्रमें।