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१३. पत्र : बा० शि० मुंजेको

कुमार पार्क,बंगलोर
१६ जून,१९२७

प्रिय डा० मुंजे,

मैंने आपके मनको चोट पहुँचाई, इसके लिए मुझे हार्दिक दुःख है। बेशक, आपको पत्र लिखते समय मेरा मन असंतुलित नहीं था । मैंने वास्तवमें यही माना है कि आपका सिद्धान्त यह है कि अपने विचारोंका विरोध करनेवालेको खरे-खोटे जिस साधनसे भी हो मात दी जाये । सच तो यह है कि में आपको ऐसे व्यक्तियों- के नाम भी बता सकता हूँ जिन्होंने बड़े जोर-शोरसे इस सिद्धान्तको उचित ठहराने- की कोशिश की है। लेकिन, अभी में आपसे बहस नहीं करूंगा । अगर कभी हम मिलेंगे तो आपको मैं पूरे प्रमाण देकर बताऊँगा कि आपके बारेमें मैंने ऐसा क्यों माना । हाँ, आपने जिस तत्परता से मेरी धारणाका प्रतिवाद किया है, वह मुझे बहुत अच्छी लगी। कारण, जिस सिद्धान्तको मैंने नैतिक दृष्टिसे सर्वथा अनुचित और सरासर गलत माना है, उसके बारेमें अगर कोई कहे कि उसका सिद्धान्त ऐसा नहीं है तो इस बात से मुझे खुशी ही हो सकती है। मगर यह जरूर है कि मैं जिस सिद्धान्तको लेकर चल रहा हूँ, उसमें ऐसे लोगोंको आदर देनेकी पूरी गुंजाइश है जिनका सिद्धान्त गलत है किन्तु जो यह नहीं जानते कि वह सचमुच गलत है । आपने अपने कथनको सही सिद्ध करनेके लिए जमनालालजीका नाम लिया है । में नहीं समझता कि वे आपकी कोई मदद कर सकेंगे । फिर भी, मैं इस पत्रको सँभालकर रखूंगा और इसके बारेमें उनसे बात करूँगा ।

अब आपके प्रश्नके बारेमें। मैंने वास्तवमें ऐसा कहा है कि आज हिन्दू धर्म में जिस प्रकारकी अस्पृश्यता बरती जा रही है, वह इस धर्मका सबसे बड़ा कलंक है । मगर इसका मतलब यह तो नहीं है कि यह हिन्दू धर्मका अंग हैं, और आपने मुझ पर ऐसा ही कहने का आरोप लगाया है । आप देखेंगे कि अपने लेखोंमें मैंने यह बात बहुत जोर देकर कही है कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्मका अंग नहीं है और यह कि अगर ऐसा हो तो फिर में इस धर्मका त्याग कर दूंगा । आपने मुझको जो कतरन भेजी है, उसमें भी आपको यह वाक्य देखनेको मिलेगा : "मुझे हिन्दू धर्म में शास्त्रका ऐसा कोई आधार नहीं मिलता जिसके बलपर मानव समाजके किसी भी हिस्सेको अस्पृश्य मानना उचित ठहराया जा सकता हो ।" इसे मैंने एक रोग कहा है ।

हृदयसे आपका,

डा० बालकृष्ण शिवराम मुंजे
नागपुर सिटी

अंग्रेजी (एस० एन० १४६१६) की फोटो - नकलसे ।

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