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२०.धर्मके नामपर झगड़ा

उदयपुर राज्यमें श्वेताम्बर और दिगम्बरोंके बीच जो झगड़ा हुआ है, उसके सम्बन्धमें एक भाईने मेरे पास अखबारोंकी कतरनें भेजी हैं, और सुझाव दिया है कि मैं उन्हें पढ़कर उनके विषयमें अपने विचार जाहिर करूँ । एक तो अपनी इस बीमारी में इतने अखबार पूरी तरह पढ़नेका मुझे समय नहीं मिलता, और दूसरे यदि पढ़ने- की शक्ति और समय भी हो तो मैं केवल अखबार पढ़कर किसी बातके सम्बन्ध में अपनी राय कायम नहीं करता । और मेरा ख्याल है कि किसीको इस तरह अपनी राय कायम नहीं करनी चाहिए। इसलिए मैं नहीं जानता कि दोनों पक्षोंमें दोषी कौन है अथवा अधिक दोष किसका है । परन्तु अखबारोंको ध्यानपूर्वक पढ़नेपर मेरे मनमें जो विचार आये उन्हें मैं पाठकोंके सामने पेश कर देता हूँ ।

लेख लिखनेवालोंकी भाषा पक्षपात-सूचक है । प्रत्येक दूसरे पक्षको दोषी और अपने-आपको निर्दोष समझता है ।

इन झगड़ों और उनपर लिखे हुए लेखों तथा हिन्दू-मुस्लिम दंगों और उनके विषय में लिखे गये लेखोंमें कोई तात्त्विक भेद मुझे बिलकुल नहीं दिखाई दिया । हिन्दू- मुसलमानोंके झगड़ोंमें अधिक विष है और तत्सम्बन्धी-लेखोंकी भाषा में अधिक कटुता है । पर यह भेद केवल मात्राका है ।

असल बात तो यह है कि हम धर्मको ही भूल गये हैं। हरएक अपनी ही बातको कायम रखना चाहता है। धर्म क्या है, कहाँ है, उसे कैसे पहचाना जा सकता है तथा उसकी रक्षा किस तरह हो सकती है, यह जाननेकी किसीको इच्छातक नहीं है ।

पर जैनियोंसे तो इससे अधिक अच्छी बातोंकी आशा की जानी चाहिए। वे स्याद्- वादके पुजारी हैं, दया-धर्मके इजारेदार हैं । उनमें सहिष्णुता होनी चाहिए । अर्थात् मतभेद रखने वाले प्रतिपक्षीके प्रति उनसे तो उदारताकी आशा की जाती है । उन्हें यह मानना चाहिए कि उन्हें स्वयं अपना सत्य जितना प्रिय है प्रतिपक्षीको भी उसका सत्य उतना ही प्रिय होगा । जहाँ विरोधी भूल करता हुआ दिखाई दे, वहाँ भी उन्हें रोषको छोड़कर दयाभावसे काम लेना चाहिए।

परन्तु इन लेखोंको पढ़ने पर तो मुझे ऐसा आभास हुआ मानो स्याद्वाद और दया-धर्म जैन-घरोंमें ही नहीं जैन मन्दिरोंमें भी केवल पोथियोंमें ही सुशोभित हो रहे हैं। इसका अनुभव तो मुझे जहाँ-तहाँ होता ही रहता है। अगर कहीं दया-धर्मंपर अमल होता भी है तो वह चींटियाँ जिमाने और मछलियोंको बचाने तक ही सीमित है । और इस धर्मका पालन करते हुए यदि मनुष्यके प्रति कहीं क्रूरता बरती जा रही हो, तो उसे धर्म समझा जाता है ।

रायचन्द भाई तो कहा करते थे कि जबसे जैन-धर्म बनियों के यहाँ गया उसका हिसाब भी बनियोंका-सा ही हो गया है । ज्ञान और वीरता दयाके लक्षण होने चाहिए; उनका तो प्रायः लोप हो गया तथा दया और भीरुता एकार्थवाची हो गये, जिससे दयाका पतन हो गया ।