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सम्पूर्ण गांधी वाङमय


फिर धर्म और धन तो एक-दूसरेके जानी दुश्मन ठहरे। किन्तु जैन मन्दिरोंमें लक्ष्मीदेवी जा बैठीं इसलिए धार्मिक सिद्धान्तोंका निर्णय तपस्यासे नहीं, बल्कि अदालतों- में वकीलोंकी दलीलोंसे होने लगा । फलतः यह हालत हो गई कि जो अधिक धन देता वही अपने अनुकूल धर्मका निर्णय करा ले आता ।

शायद इस चित्रमें कुछ अतिशयोक्ति जान पड़े, पर अत्युक्ति जरा भी नहीं है। मैं जैनियोंको जानता हूँ। वैष्णव सम्प्रदाय और वैष्णवोंसे मेरा जितना परिचय है, लगभग उतना ही परिचय जैन सिद्धान्तों और जैनियोंसे भी है। कितने ही लोग मुझे द्वेषवश जैन समझते हैं, तो कितने ही प्रेमपूर्वक चाहते हैं कि मैं जैन हो जाऊँ और कई जैनियोंके प्रति मेरा पक्षपात देखकर मुझसे खुश भी होते हैं। मैंने जैन ग्रन्थोंसे बहुत कुछ सीखा है । बहुतसे जैन मित्रोंका सहवास मेरे लिए बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ है। इसीलिए उपर्युक्त बातें कहकर उन लोगोंको जाग्रत करनेकी मुझे इच्छा हुई जिन्हें जैन धर्म प्रिय है ।

श्वेताम्बरों और दिगम्बरोंमें दुश्मनी हो ही क्यों ? दोनोंके सिद्धान्त एक ही हैं । जो थोड़ा-सा भेद है, वह ऐसा नहीं जो असह्य हो, बल्कि द्वैतियों और अद्वैतियोंके भेदकी तरह वह एक ऐसा भेद है जिससे दोनों शान्ति और समाधानपूर्वक अपने- अपने धर्मका पालन कर सकते हैं।

जैनियों में साधु और साध्वियाँ बहुत हैं। उन्हें समय भी बहुत मिलता है । वे सच्ची तपश्चर्या क्यों न करें ? क्यों न वे शुद्ध ज्ञान प्राप्त करें ? वे क्यों न अपना अनुभूत ज्ञान समाजको दें ?

जैन युवक अपने बड़े-बूढ़ोंके समान धनोपार्जनमें ही व्यस्त दिखाई देते हैं । गृह- स्थाश्रमी रहते हुए भी वे तपस्वी जैसे बनकर उदारचित्त, स्वच्छ और दयामूर्ति क्यों नहीं हो जाते ?

मुझसे पालीतानाके[१] विषयमें भी राय माँगी गई थी। अब मुझसे उदयपुरके दयनीय उपद्रवपर मत माँगा गया है। यह मत चाहनेवाले मित्र भी युवा हैं। इस बार मैंने ऐसा मत दे दिया है जिसकी शायद उन्होंने अपेक्षा नहीं की होगी ।

में जैन और हिन्दू धर्मको अलग-अलग नहीं समझता । स्याद्वादकी सहायता से ही मैं हिन्दू अर्थात् वैदिक-धर्म और जैन धर्मका ऐक्य साधन कर सकता हूँ । बल्कि उसकी सहायता से मैंने कमसे कम अपने लिए तो कभीका, समस्त धर्मोका ऐक्य साधन कर लिया है। श्वेताम्बर - दिगम्बरके झगड़ोंका न्याय अखबारों और अदालतोंसे नहीं प्राप्त हो सकता। वह तभी प्राप्त हो सकता है जब दोनों अथवा कोई एक पक्ष दोनोंके लिए प्रायश्चित्त करे, और शुद्ध हो जाये। जिससे यह भी न बन पड़े वह धर्मका नाम छोड़कर नम्रतापूर्वक मौन धारण कर ले ।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, १९-६-१९२७

  1. सौराष्ट्र-स्थित जैन तीर्थ-स्थान ।