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२१. स्वदेशी बनाम विदेशी

एक काठियावाड़ी भाई लिखते हैं:[१]

इस पत्र में जो विचार-दोष है, उसे अधिकांश पाठक तो तुरन्त समझ जायेंगे । पर फिर भी इस तरहके विचार कई बार सुने जाते हैं, इसलिए यह उचित है कि स्वदेशीका रहस्य जितना स्पष्ट किया जा सके उतना स्पष्ट कर दिया जाये । इसके सिवा, स्वदेशीके दुरुपयोगके कारण हमें भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है । स्वदेशीके नामपर अनेक प्रवृत्तियाँ चल रही हैं। यदि उन्हें छोड़कर सच्ची स्वदेशी में अपनी शक्ति लगा दी जाये तो हम अपने कामको बहुत जल्दी पूरा कर सकेंगे ।

मुझे विश्वास है कि स्वदेशी व्रतके प्रति मेरी निष्ठा धीमी पड़नेके बजाय और तीव्र होती जा रही है । और १९२० में मैंने जिस रूपमें उसका दर्शन किया था उसी रूप में मैं उसका पालन करता आ रहा हूँ । बल्कि आज तो उसका पालन में अधिक दृढ़तापूर्वक कर रहा हूँ । विदेशी सुई हम जरूर लें क्योंकि वह उपयोगी चीज है, और हम उसे हजम भी कर सकते हैं । उसको स्वीकार करके हम देशके किसी भी उद्योगको हानि नहीं पहुँचाते । उसको ग्रहण करनेसे देशमें बेकारी नहीं बढ़ती । बल्कि वह सुई तो सैकड़ोंको धन्धा देती है । और वह धन्धा हमारे लिए उपयोगी भी है । विदेशी कपड़ा भले ही अच्छा हो, सस्ता हो, चाहे हमें उसके लिए कौड़ी भी न देनी पड़े, फिर भी वह त्याज्य है । क्योंकि उसको स्वीकार करनेसे करोड़ों लोग पामाल हो गये हैं । कपड़ा तो हम अपने गाँवोंमें ही पैदा करते आये हैं। उसके बदले में हमें कोई दूसरा धन्धा अभीतक नहीं मिला है। अतः उस धन्धेका त्याग करके हमने महापाप किया है । उसको त्याग देनेसे देशमें भुखमरी बढ़ी, और भुखमरी बढ़ने से रोग बढ़े, जुर्म बढ़े और अनीति बढ़ी। अगर भविष्य में कभी ऐसा समय आये जब इस देशके लोगोंको कोई दूसरा अधिक प्रामाणिक उद्यम मिल जाये, अथवा इस देशकी जमीन कपास न पैदा कर सके, अथवा स्वयं किसान ही कपासके बदले कोई अन्य उपयोगी और अधिक धन देनेवाली फसल पैदा करने लग जायें, तो उस समय भले ही कपड़ा- सम्बन्धी स्वदेशी व्रत अनुपयोगी हो सकता है । ऐसे समय यदि आनेवाली पीढ़ी हमारे समयके साहित्यको देखकर, उसे अविचल सिद्धान्त समझकर कपड़े के सम्बन्ध में स्वदेशीका आग्रह करेगी तो वह मूर्ख समझी जायेगी। उसकी वह चेष्टा इसी प्रकारकी होगी जैसे कि कोई पुत्र अपने पिताके बनाये कुएँको तैरकर पार करनेकी बजाय उसीमें डूब मरे । अलबत्ता, मेरी बुद्धि तो ऐसो कल्पना नहीं कर सकती कि आगे चलकर कभी ऐसा युग आयेगा । वह आये चाहे न आये पर आजकी स्थिति में तो खादी

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। उसमें पत्र-लेखकने २२-५-१९२७ के नवजीवन में प्रकाशित गांधीजीके " गाय और भैंस" शीर्षक लेखका हवाला देते हुए उनके इस विचारकी आलोचना की थी कि ऐसी उपयोगी वस्तुएँ जिन्हें हम देशमें नहीं बना सकते उन्हें विदेशसे लेते रह सकते हैं। देखिए खण्ड ३३ ।