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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

स्वदेशीका विशुद्धतम रूप है, इस बारेमें दो मत नहीं हो सकते, बल्कि यह भी कहा जा सकता कि फिलहाल तो हैं भी नहीं ।

इस देशमें करोड़ों रुपयोंका कच्चा माल पैदा होता है। और हमारे अज्ञान, आलस्य तथा शोधशक्तिके अभाव के कारण सब का सब विदेश चला जाता है । परिणाम, जैसा कि श्री मधुसूदन दास कहते हैं, यह होता है कि हम पशुओं-जैसे रह जाते हैं । हमारे हाथोंको जो तालीम मिलनी चाहिए वह नहीं मिलती और बुद्धिका विकास भी नहीं होता । फलतः देशसे जीवित कला लुप्त होती जा रही है और हम केवल पश्चिमका अनुकरण करके रह जाते हैं । अतः हमारे देशमें मिलनेवाले नौ करोड़ रुपयेकी कीमतके, मरे जानवरोंके चमड़ेका उपयोग करने योग्य यन्त्र जबतक हम स्वयं नहीं बना सकते, तबतक तो मैं आवश्यक यन्त्र आदि दुनिया के किसी भी कोने से मँगाने को तैयार हूँ, और फिर भी में इसे स्वदेशी धर्मका पूर्ण पालन ही मानूंगा । मेरा खयाल है कि यदि हम महज अपने हठके कारण ऐसे यन्त्र नहीं मँगायेंगे तो स्वदेशी धर्मको हानि पहुँचेगी। उसी प्रकार हमारे देशमें ओषधियाँ बहुत होती हैं और वे अनेक प्रकारकी दवाओं तथा अन्य चीजोंके रूपमें फिर देशमें वापस आ जाती हैं । उनका भी यहीं उपयोग करनेके लिए यदि हमें यन्त्रों अथवा बाहरी सहायताकी जरूरत हो तो ये यन्त्र मँगवाना या सहायता लेना हमारा धर्म है।

स्वदेशी तो शाश्वत धर्म है। उसका व्यवहार हर युगमें बदलता ही रहेगा, और बदलना भी चाहिए । स्वदेशी आत्मा है और भारतमें इस युगके लिए खादी उसका शरीर है । समय पाकर उसकी इस देहका नाश होना हो तो भले ही हो । तब वह दूसरी तथा नवीन देह धारण कर लेगा । पर अन्तरमें स्थित आत्मा तो वही होगा । स्वदेशी एक सेवा-धर्म है । इस सेवा-धर्मको यदि हम पूरी तरह समझ लें तो हमारा, हमारे परिवारका, देशका और सारे संसारका कल्याण होगा। स्वदेशी में स्वार्थ नहीं, शुद्ध परमार्थ है । इसलिए मैं उसे यज्ञ मानता हूँ। इसमें अपना लाभ जरूर है, परन्तु पर-द्वेषके लिए स्वदेशी में स्थान ही नहीं है । धर्म ऐसा ऐकान्तिक तो कभी हो ही नहीं सकता कि विदेशसे कभी कोई चीज न मँगाई जाये । हाँ, हम विदेशसे कोई ऐसी चीज न लावें जिससे देशको नुकसान हो। इतना ही नहीं, धर्म ऐसा ऐकान्तिक भी नहीं हो सकता कि देशका सब कुछ हमेशा अच्छा ही होता है। अपने देश या दूसरे देशोंकी जो भी वस्तु कल्याणकर और पोषक हो वह ग्रहण करने योग्य ही है। और जो बुरा और घातक हो वह त्याज्य है । देशमें कितने ही प्रकारकी शराब होती है परन्तु वह सर्वथा त्याज्य है । यह माननेका कोई कारण नहीं कि यदि समस्त भारतवर्ष उसका त्याग कर देगा तो शराबका धन्धा करनेवालोंको नुकसान होगा। उनका आजका पेशा उनके तथा देशके लिए हानिकर है। अगर यह पेशा बन्द हो जायेगा तो भी वे भूखों नहीं मरेंगे । वल्कि दूसरा अच्छा-सा पेशा उन्हें आसानी से मिल जायेगा ।

[ गुजरातीसे ]

नवजीवन, १९-६-१९२७