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पत्र: लक्ष्मीकान्तको

में हर डाकसे पत्र लिखनेका प्रयत्न तो करूँगा ही किन्तु इतना याद रखना कि मैंने 'गीता' का जो अनुवाद तुम्हें दे रखा है वह भी मेरे पत्रों में ही गिना जाना चाहिए। यह अनुवाद तुम्हारे जैसे लोगोंके लिए ही है और फिर अब तो वह और भी तेजी से हो रहा है ।

यदि उक्त अनुवादकी भाषा समझमें न आये अथवा अच्छी न लगे तो मुझे लिखना ताकि में और भी सावधानी रखूं तथा यदि कोई अंश ऐसा रह गया हो जो तुम्हारी समझ में न आया हो तो उसे सुधार सकूं। ऐसा करनेसे तुम्हें जितनी मदद मिलेगी उतनी ही मदद मुझे भी मिलेगी ।

तुम्हारा ‘गीता’का अध्ययन चल रहा है, यह जानकर मुझे प्रसन्नता हुई । तुमने अपनी तसवीर रामदासको भेजी है, यहाँ भेजी हो ऐसा नहीं जान पड़ता ।

तुम चाहते हो कि तुम्हारा पत्र कोई और न पढ़े, यह तो ठीक है किन्तु पत्र में गोपनीय तो कुछ नहीं होता । तुम्हारे बारेमें जाननेको सभी उत्सुक रहते हैं इसलिए यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारा पत्र कोई और न पढ़े तो तुम्हें बीच-बीच में छगनलालको ऐसा पत्र लिखना चाहिए जिसे सभी आश्रमवासी पढ़ सकें । तुम्हारी इच्छाका खयाल करके मैंने तो तुम्हारे पत्र किसीको दिखाये ही नहीं हैं ।

बापूके आशीर्वाद,

[ पुनश्च: ]

मेरी तबीयत ठीक है । यह पत्र तुम्हें मिलेगा तबतक तो मेरा दौरा फिर शुरू हो चुका होगा ।

गुजराती (जी० एन० ४७२१) की फोटो - नकलसे ।

२९. पत्र : लक्ष्मीकान्तको

बंगलोर
ज्येष्ठ कृष्ण ६ [ २० जून, १९२७]

भाई लक्ष्मीकांतजी,

आपके दोनों पत्र मिल चुके हैं। पू० मालवीयजीके साथ बात करनेकी इच्छा थी इसीलिये अगले पत्रका उत्तर तुरन्त नहीं भेज सका । मुझको ऐसा प्रतीत होता है कि आपको जाहेर पत्र लिखना न चाहिये था । जाति-सुधारणाका प्रश्न बड़ा गंभीर है और मुश्किल है । उसमें धीरजकी बड़ी आवश्यकता है। मालवीयजीको आपके प्रति कुछ द्वेष नहीं है। उनके साथ बात करनेके बाद मेरा तो निश्चय हो गया है कि आपकी और उनकी कार्य-प्रणालीमें भेद है । पू० मालवीयजी हिंदु जातिकी सुधारणा चाहते हैं, जातिके संकुचित नियमोंको उदार कराना भी चाहते हैं परन्तु एक