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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मनुष्यके कुछ नया कार्य करनेसे सुधारणा नहीं बन सकती ऐसा उनका विश्वास है । परन्तु अपनी पद्धतिके भी अनुकूल जो कुछ प्रयत्न हो सकता है वह वे कर रहे हैं। आपको कष्ट देने का उनके दिलमें विचार तक भी नहीं आ सकता है ।

अब मेरा अभिप्राय यह है । आपने जो कुछ किया वह योग्य था । हिन्दु जातिमें रहते हुए, किसीका द्वेष न करते हुए हिंदु धर्मसे पूर्ण प्रेम रखते हुए सुधारक अपना काम करते जाय और वह करते हुए जो कुछ भी कष्ट पड़े उसकी बरदाश्त करे । समाज व्यवहारके बाहर जाकर जो कार्य करता है वह समाजका शासनकी बरदाश्त करे और बरदाश्त करते हुए समाजके प्रति उदार भाव रखे । उसीका नाम सत्याग्रह है । समाजके कानूनोंका अनादर करना और पीछे उस अनादरका शासन भोगने से दुःख मानना वह सुधारकका कार्य नहीं है । मैंने सुना है कि आप यदि प्रायश्चित्त करें तो जातिमें दाखिल हो सकते हैं। में प्रायश्चित्त करनेका विरोधी हूं । प्रायश्चित्त उस चीजका हो सकता है जिसको हम बुरा मानें । आपने किया है वह बुरा काम नहीं है। इसलिये उसका प्रायश्चित्त अनावश्यक और अनुचित है। परंतु आप जाति- बहिष्कार सहन करनेके लिए तैयार न हो तो जो कुछ प्रायश्चित निश्चित हो वह करके आप जाति में जा सकते हैं। आपने जो आपके जाहेर पत्रमें इस्लामका उल्लेख किया है और धमकी-सा है उससे मुझको दुःख हुआ । प्रत्येक मनुष्य अपने धर्मका पालन करता है। वह किसीके उपकारके लिए नहीं परन्तु वह धर्मको अपनी जीवन- डोरी समझता है और उसके बिना भी उसको असंभवित-सा प्रतीत होता है। भारत- वर्ष-भरके हिंदु आपका विरोध करें तो भी उसमें हिंदु धर्मकी अवज्ञाके लिये कोई स्थान नहीं है, यदि उस धर्मके सिद्धान्त आपके लिये मोक्षदायी हों तो ।

एस० एन० १२६७४ की माइक्रोफिल्मसे ।

३०.एक पत्र

[२० जून, १९२७ के पूर्व][१]

तुम्हारा पत्र मिला । ऐसा लगता है कि 'भागवत' आदि ग्रंथ भाँति-भाँति के लोगोंकी आवश्यकताको पूरा करनेकी दृष्टिसे लिखे गये हैं । यह हो सकता है कि व्यभिचारी व्यक्ति उसमें अपनी व्यभिचार-लालसाको ही भड़कानेवाली बात खोजे । किन्तु जो व्यक्ति हर पत्ते में भगवान्‌ के दर्शनोंकी इच्छासे 'भागवत' पढ़ता है उसके मनमें यदि किसी प्रकारका विकार होता भी है तो वह शान्त हो जाता है। इसका सीधा-सा उपाय तो यह है कि यदि किसी पुस्तकको पढ़ने से हमारे मनमें विकार उत्पन्न होता हो तो हमें उक्त पुस्तक पढ़ना छोड़ देना चाहिए। 'भागवत' कोई ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है और न उसमें ऐतिहासिक कृष्णका वर्णन है । कृष्ण तो वास्तव में आत्मा है

  1. सावन-सूत्र में यह पत्र २१-६-१९२७ के पहले ही दिया गया है।