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पत्र : जयकृष्ण प्रभुदास भणसालीको

करनेके बारेमें हमारे मनमें शंका हो तो उसे नहीं करना चाहिए और फिर यदि उसे शुरू करने के बाद उसके विषयमें शंका उत्पन्न हो जाये तो उसे उसी क्षण बन्द कर देना चाहिए । यही सच्चा प्रायश्चित्त कहा जायेगा । ऐसा किये बिना यदि कोई दूसरा प्रायश्चित्त किया भी जाये तो वह निरर्थक है । यदि नये घरकी तुम्हारी माँग दोष- पूर्ण हो तो उस दोषका निवारण उपवाससे नहीं हो सकता । यदि उसमें कोई दोष दिखाई न देता हो तो प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है । दोषके सम्बन्धमें तनिक भी शंका हो तब तो उसे उपवासके द्वारा ढकनेका प्रयत्न करना दूसरा दोष करनेके समान है। क्योंकि उपवास करके हम निश्चित हो जाते हैं। और अपने किये हुए किसी दोषके सम्बन्ध में इस तरह निश्चिन्त हो जाना धर्म नहीं है । उपवासादि प्राय- श्चित्त एक प्रकारका दण्ड है और दण्ड तो केवल उसी वस्तुके लिए दिया जा सकता जिसे हम सुधार ही न सकते हों। हम यदि किसीको गाली दें अथवा मारें तो इन्हें वापस नहीं लिया जा सकता । अतः इसके लिए हम उपवासादिका दण्ड भोगते हैं । दण्ड- से आत्मशुद्धि भी होती है और वह हमें दुबारा भूल करनेसे रोकता है। लेकिन मान लो कि हमने किसीके पैसे चुराये और चुराते समय हमें ऐसा लगा कि उसमें कोई दोष नहीं है। बादमें हमारे मन में शंका उत्पन्न हुई कि शायद हमने दोष किया है तो जिस क्षण मनमें ऐसा भय उत्पन्न हो उसी क्षण हमें वे पैसे उसके मालिकको पहुँचा देने चाहिए तथा इसके सिवा यदि इच्छा हो तो हमें उपवासादिका दण्ड भी भोगना चाहिए। पैसे वापस करना तो कर्ज चुकानेके समान है, उसमें दण्डकी बात नहीं है । यदि यह कहा जाये कि जबतक चोरीके अच्छे-बुरे होने के बारेमें शंका हो तबतक पैसे क्यों वापस किये जायें, तबतक हम उन्हें अपने पास ही रखेंगे और जब यह निश्चित हो जायेगा कि यह दोष ही है तब वापस दे देंगे, तो जगत् में अनेक पाप इसी तरकी दलीलके कारण होते हैं, हुए हैं। नीति तो यह कहती है कि जहाँ-जहाँ शंका हो वहाँ-वहाँ उसका निर्णय हमें अपने स्वार्थके विरुद्ध करना चाहिए। लेकिन एक कदम आगे बढ़कर हम यह मान लें कि जबतक चोरी करनेके बारेमें मनमें शंका है तबतक पैसे वापस करनेके औचित्यके सम्बन्धमें भी शंका होगी । ऐसी परिस्थितिमें भी इस शंकाके निवारणका उपाय उपवास तो कदापि नहीं है । उलटे सत्यकी शोध में यह उपवास बाधक सिद्ध हो सकता है ।

यह तो मैंने तुम्हें नीतिका विश्लेषण करके दिखाया । तुम्हारे मामले में मुझे स्वयं कोई शंका नहीं है। जो एकान्तमें स्थित हो और जिसमें किंचित् ज्यादा जगह हो ऐसे घरकी माँग करनेका तुम्हें अधिकार था क्योंकि आश्रमवासी मानते हैं कि तुम्हारा आश्रम में रहना आश्रमके लिए उन्नतिकारक है । तुम जो प्रयोग करते रहते हो उनके लिए सबसे अच्छा स्थान आश्रम ही है और ऐसे प्रयोग आश्रमका अविभाज्य अंग हैं। इसलिए अपने इन प्रयोगोंकी दृष्टिसे तुम जिन सुविधाओंको आवश्यक मानो और उन्हें दूसरे लोग भी स्वीकार करें तथा आश्रमकी आर्थिक स्थिति उनका बोझ उठा सकती हो तो आश्रमको इन सुविधाओंकी व्यवस्था कर देनी चाहिए। और चूंकि स्थिति ऐसी थी अत: तुम्हारे लिए मकान तैयार किया भी गया है। इसके सिवा