पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 34.pdf/८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४७
पत्र : एच० हारकोर्टको

अपनी नाकसे उसके मुक्केको चोट पहुँचाई । वह परिहास मुझे इसलिए ठीक-ठीक याद है कि उसमें आपने अनजाने ही मेरे सिद्धान्तको साररूपमें प्रकट किया है। सचमुच अपनी नाकको मैंने बहुतों के मुक्कोंके आगे किया, लेकिन अबतक उससे मुझे कोई नुकसान नहीं हुआ है । अपने अनुभवसे मैंने यह जाना है कि जब कोई व्यक्ति बजाय इसके कि अपनी नाकको चुपचाप मुक्का चलानेवालेके सामने कर दे, उसके मुक्केको पकड़कर उससे बचने की कोशिश करता है तभी वास्तवमें उसे सबसे ज्यादा चोट पहुँचती है। मगर यहाँ तो मुझे आपको अपना जीवन-दर्शन - जिस तरीकेको लेकर में चल रहा हूँ उसे अगर यह श्रेष्ठ संज्ञा दी जा सकती हो तो - समझाने की कोशिश नहीं ही करनी चाहिए।

मगर में दो शब्द, आप मेरे विषयमें जो कुछ सोचते हैं, उसके सम्बन्ध में कहना चाहूँगा । आप सच मानिए कि मैंने वास्तव में अपने-आपको आपके दर्पण में देखनेकी कोशिश को । मगर में तो उसमें अपने-आपको पहचान ही न सका । आपने मेरा जो चित्र खींचा है, उसपर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता । मुझे आशा तो यही है कि मैं अपने बारेमें बढ़ा-बढ़ाकर नहीं सोचता । लेकिन, न चाहते हुए भी मुझे इस बातके लिए दुःख प्रकट करना ही पड़ेगा कि आपके जैसा शुद्ध हृदय व्यक्ति भी इस शुद्ध आन्दोलनका अध्ययन कुछ और अधिक ध्यानसे नहीं कर सका। स्पष्ट है कि आपको वैसा करना जरूरी ही नहीं लगा । किन्तु वास्तविकता यह है कि इस आन्दोलनने चाहे जैसे हो, ऐसे हजारों-हजार स्त्रियों और पुरुषोंका मन अपनी ओर आकृष्ट किया जिनपर अभीतक किसी आन्दोलनका कोई असर नहीं हुआ था । अब तो बहुतसे अंग्रेज भाई भी ऐसा समझने लग गये हैं कि मेरा आन्दोलन दो ऐसे पक्षोंके बीच, जिनमें से एक अपने-आपको दूसरेसे बड़ा मानता है, सही और लाचारीके सहयोगके स्थानपर असहयोगके द्वारा दो समान पक्षोंके बीच सच्चा और हार्दिक सहयोग स्थापित करने का निश्छल प्रयास था ।

मैं आपके पत्रकी[१] प्रतीक्षा करूँगा, उसमें आप लिख भेजें कि आपकी चुनौती क्या थी । अगर मुझे लगा कि चुनौती ऐसी है जिसे अब भी स्वीकार किया जा सकता है और मुझमें उसे स्वीकार करनेकी उतनी ही क्षमता भी है, तो आप भरोसा रखिए कि में उसे अवश्य स्वीकार करूँगा ।

हृदयसे आपका,

श्री एच० हारकोर्ट

११९, जिप्सी हिल

लन्दन, एस० ई० १९

अंग्रेजी (एस० एन० १२५२३) की फोटो - नकलसे ।

  1. अपने १२ जुलाईके पत्रमें हारकोर्टने लिखा कि मैंने जिस चुनौती की बात कही थी वह मेरी नहीं आपकी ही थी और मेरे देशवासियोंको दी गई थी। मैंने उसका उत्तर देनेकी कोशिश की थी किन्तु अब मेरे पास उसकी कोई प्रति नहीं है। (एस० एन० १२५३१ ) ।