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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है । अमेरिकापर लिखे आपके परिच्छेदके विषयमें सोचते ही मुझे कई वर्ष पूर्व " अगर ईसा शिकागो आयें" में स्टेडकी लिखी बातोंका स्मरण हो आता है । और मुझे जानकारी देनेवाले लोगोंने अगर मुझको गलत न बताया हो तो जो बात स्टेडने आजसे लगभग ४० वर्ष पूर्व अपने उस तीखे लेख में लिखी थी, वह तबकी परि- स्थितियों की अपेक्षा आजकी परिस्थितियोंके सन्दर्भमें कहीं अधिक सच है ।

बेल्जियम और स्विट्जरलैंडके उदाहरणोंके बारेमें में कुछ नहीं कह सकता, क्योंकि उनके बारेमें में कुछ जानता ही नहीं। और आपने कोई तथ्य या आँकड़े तो दिये नहीं हैं। आपकी पुस्तक पढ़कर मुझे रस्किन द्वारा किसी पुस्तक में लिखा वह अंश याद आ जाता है, जिसका आशय कुछ इस प्रकार है : अगर मनुष्य यन्त्र बन जायें और फिर इन यन्त्रोंसे हाड़-मांसको अलग निकाल दिया जा सके तो इन्हें ठोक-पीट- कर चौकोर ईंटोंकी शकल दी जा सकती है और तब इन मानव-रूपी ईंटोंसे एक शानदार पिरामिड बनाया जा सकता है; इन ईंटोंका मालिक इनसे अपनी इच्छानु- सार चाहे जो काम ले सकता है । लेकिन, अब इसे सौभाग्य कहिए अथवा दुर्भाग्य, आपका वास्ता यन्त्रोंसे नहीं, बल्कि हाड़-मांसयुक्त ऐसे समझदार प्राणियोंके साथ है, जिनमें से हर एकका अपना अलग व्यक्तित्व और अलग विशेषता है तथा हरएक अपनी- अपनी दिशाम आगे बढ़नेके लिए जोर लगा रहा है। मेरी समझ में तो यह बात नहीं आती कि आपने खूबसूरत टाइप में छपी अपनी पुस्तकमें सुविन्यस्त नगरों, सहकारी योजनाओं, हरित उद्यानमय उपनगरों और नये शैक्षणिक तरीकोंका जो कटा-तराशा चित्र प्रस्तुत किया है, वह आपकी अपेक्षित दिशा में समाजको तबतक कैसे बदल सकता है, जबतक कि मनुष्यकी आत्माको जाग्रत करनेका उपाय नहीं निकाला जाता । अब मैं अन्तमें आपसे फिर वही बात कहूँगा जो पहले कह चुका हूँ, मतलब यह कि आप जरा बड़े पैमानेपर अपनी नीतिकी सफलताका कोई ठोस प्रमाण प्रस्तुत करके दिखायें ताकि कोरे सिद्धान्तके बजाय व्यवहारमें विश्वास करनेवाला मुझ जैसा व्यक्ति कुछ सीख सके ।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत कैप्टन जे० डब्ल्यू० पेटावेल

बाग बाजार

कलकत्ता

अंग्रेजी (एस० एन० १४१७१ ) की फोटो - नकलसे ।