पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 35.pdf/५८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५५३
परिशिष्ट

तकके पक्षमें हूँ, बशर्तें कि वहाँ अहिंसात्मक वातावरण हो। तिरुवांकुर सरकार द्वारा वाइकोम समझौतेका युक्तियुक्त ढंगसे पालन न किये जानेसे वर्त्तमान गड़बड़ी उत्पन्न हुई है और इससे मन्दिरोंमें अवर्णोंके प्रवेशकी माँग मजबूत होगी। उन्होंने कहा, 'हाँ, मन्दिर प्रवेशकी स्थिति आ रही है।'

गांधीजीने वादा किया कि वह एर्णाकुलम् जाते हुए रास्तेमें तिरुवरप्पु आनेकी कोशिश करेंगे।

[अंग्रेजीसे]
हिन्दू, ६-१०-१९२७
 

परिशिष्ट ४
भेंट : कांचीके श्री शंकराचार्य से[१]

१९२७ के उत्तर भागमें महात्मा गांधी कांग्रेसके उद्देश्योंका प्रचार करने तथा चन्दा इकट्ठा करनेकी दृष्टिसे दक्षिणका दौरा कर रहे थे। गांधीजीने, जो 'हिन्दू' के मैनेजर श्री ए॰ रंगास्वामी अय्यंगार तथा श्री एस॰ सत्यमूर्तिसे आचार्यके बारेमें पहले ही सुन चुके थे, आचार्यजी से भेंट करनेका फैसला किया। यह ऐतिहासिक बैठक १५ अक्टूबर, १९२७ को पालघाटके नेल्लिचेरी जिलेमें आचार्यके कैम्पसे लगी हुई एक मवेशीशालामें सम्पन्न हुई। उसमें केवल कुछ लोग ही मौजूद थे, लेकिन कोई पत्रकार उपस्थित नहीं था।

गांधीजीने परम्परागत हिन्दू तरीकेसे आचार्यको आदरांजलि अर्पित की। गेरुए वस्त्रधारी तथा जमीनपर बैठे हुए संन्यासीकी अत्यधिक साधुताने गांधीजीके मनपर बड़ा गहरा असर डाला। नीरवता छाई हुई थी। इसके बाद आचार्यने स्वागतके तौरपर संस्कृतमें कुछ शब्द कहे और गांधीजीसे बैठनेके लिए कहा। गांधीजी बैठ गये और बोले कि मैं संस्कृतमें बोलनेका आदी नहीं हूँ, लेकिन इस भाषाको कुछ-कुछ समझ सकता हूँ। उन्होंने हिन्दीमें बोलनेकी अनुमति माँगी। क्योंकि आचार्य हिन्दी समझ सकते थे इसलिए यह व्यवस्था दोनोंकी दृष्टिसे ही उचित थी। गांधीजी हिन्दीमें बोले और आचार्य संस्कृतमें।

आचार्यने गांधीजी द्वारा राजनीतिको आध्यात्मिक रूप देनेके प्रयत्नकी सराहना की, क्योंकि स्वस्थ राष्ट्रीय जीवन आध्यात्मिक नींवपर ही टिका होना चहिए और ऐसे राष्ट्र जो धर्म विहीन होते हैं तथा भौतिकवादी शक्तियोंपर निर्भर करते हैं उनका विनाश अवश्यम्भावी होता है। हरिजनोंके मन्दिर प्रवेश से सम्बन्धित प्रश्नपर आचार्यने कहा कि जो लोग अब भी शास्त्रों और स्मृतिको प्रभुतामें विश्वास रखते हैं उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाना भी एक प्रकारकी हिंसाके समान ही होता है। बातचीत

  1. देखिए पृष्ठ १४७ की पाद-टिप्पणी।