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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


श्री गांधीने कहा कि इस प्रकारका आयोग विफल प्रयास सिद्ध होगा क्योंकि आत्मसम्मानी भारतीय लोकमत जान बूझकर किये गये इस अपमानका विरोध करेगा। इसका परिणाम यही होगा कि आयोगका बहिष्कार किया जाये। तथापि उनकी रायमें आयोगका गठन कितना ही अच्छा क्यों न हो और उसके विचारार्थ विषयोंकी सूची कितनी ही उदार क्यों न हो, इस आयोगका कोई महत्व नहीं है। यह पूछे जानेपर कि क्या वह अपने देशवासियोंको, विशेष रूपसे स्वराज्यवादियोंको आयोगके साथ उसकी जाँच काममें सहयोग करनेकी सलाह देंगे, श्री गांधीने कहा कि यह मेरा काम नहीं है। स्वराज्यवादी लोग राजनीतिक युद्धनीतिके मँजे हुए खिलाड़ी हैं, बच्चे नहीं, जिन्हें बताया जाये कि वे क्या करें और क्या न करें। तथापि श्री गांधीने वाइसराय महोदयको यह आश्वासन दिया कि मैं स्वयं आयोगके बहिष्कारका कोई आन्दोलन आरम्भ नहीं करूँगा क्योंकि मैंने बहुत पहले ही राजनीतिक नेतृत्वका भार स्वराज्यवादियोंको दे दिया है। श्री गांधीने अन्तमें कहा कि मैं आयोगके काम में सहयोग करनेसे किसीको रोकूँगा नहीं, और मैं रोक भी नहीं सकता।

[अंग्रेजीसे]
हिन्दू, ९-११-१९२७

परिशिष्ट ६
एस॰ डी॰ नाडकर्णीके पत्रका अंश[१]

. . .जो वर्ण सदैव विद्यमान रहा है वह है कृत्रिम रूपसे कायम रखा गया पक्का विभाजन जिसे अन्यथा 'जाति' कहा जाता है चाहे वह चार सूत्री हो, जैसा कि वह 'एक जमानेमें था', या चालीस हजार सूत्री हो, जैसा कि वह आज है, मूलतः वह एक ही चीज है। यह मात्र जन्मके सिद्धान्तपर आधारित एकाधिकारों और प्रतिबन्धों के वितरणकी एक प्रणाली है।. . .

. . .अब महात्माजी, यदि आप और मैं सच्चे हिन्दू हों, और केवल 'वैश्य' और 'ब्राह्मण' मात्र नहीं—क्योंकि मैं ब्राह्मण कुलमें जन्मा हूँ—तो हमें रामके जमानेके 'शूद्र' तपस्वी शम्बूककी स्मृतिकी पूजा करनी चाहिए जो धार्मिक स्वतन्त्रताका प्राचीनतम हिमायती था और जो भारतका या विश्वका पहला शहीद था जिसका उल्लेख मिलता है। महात्माजी, क्या आप मेरे साथ मिलकर ऐसा करनेको तैयार हैं? केवल इसी प्रकार ब्राह्मण-विरोधी आन्दोलनका दंश दूर किया जा सकता है और युगों पुराने इस संघर्षकी राख में से एक संगठित हिन्दू धर्मका जन्म हो सकता है। मैं कहता हूँ कि यदि हिन्दू धर्मको आगे जीवित रहना है और फलना-फूलना है तो शम्बूकके साथ न्याय किया जाना चाहिए।

  1. देखिए "वर्णाश्रम और उसका विरूपीकरण", १७-११-१९२७।