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परिशिष्ट


. . .यदि ऐसा हो तो सभी गांधियोंको पंसारीकी दूकान करनी चाहिए और रामनाम जपना चाहिए तथा अपने देशके सामाजिक और राजनीतिक सुधारका काम हाथमें नहीं लेना चाहिए, कमसे कम शायद तबतक जबतक कि गार्हस्थ्य जीवन पूरा करनेके बाद निर्धारित उम्र में उन्होंने औपचारिक रूपसे चतुर्थ आश्रमको स्वीकार न लिया हो। अन्यथा, किसी वैश्यके लिए राजनीतिमें प्रवेश करना ब्राह्मणों और क्षत्रियोंके 'आध्यात्मिक अधिकार क्षेत्रका' अतिक्रमण करना होगा। लेकिन क्या यह नियम समाज के लिए लाभकारी होगा? और आनुवंशिकता के नियमका क्या होगा? यदि हम इसपर तनिक भी विचार करें तो यह बात दिनके प्रकाशके समान स्पष्ट हो जायेगी कि आनुवंशिकताके सिद्धान्तको भंग करनेवालोंको हमने धर्मके नामपर जालिमाना दण्डका भागी बनाकर इस सिद्धान्तपर जरूरत से ज्यादा जोर दिया है।. . .

. . .जिस प्रकार आप, जो वैश्य-संतान हैं, सम्पूर्ण वैश्य वर्गको भारतके आर्थिक पतनका जिम्मेदार मानते हैं, उसी प्रकार जन्मतः ब्राह्मण होकर भी मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि एक वर्गके रूपमें ब्राह्मण लोग समस्त भारतकी आध्यात्मिक और आर्थिक गुलामीके लिए जिम्मेदार हैं। जिन लोगोंको बहुत ज्यादा दिया गया था, उनसे बहुत ज्यादाकी अपेक्षा भी की गई थी। किन्तु हाय, एक अदूरदर्शी स्वार्थपरतासे उत्पन्न संकीर्ण कट्टरताने उन्हें समाजको अपनी सर्वोत्तम सेवाएँ प्रदान करनेसे रोक दिया; और सभी ब्राह्मणवादियोंका और उनके साथ ब्राह्मणों का जबर्दस्त पतन हुआ।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १७-११-१९२७

परिशिष्ट ७
भारतीय संसदीय आयोगके सम्बन्धमें वाइसराय महोदयके वक्तव्य के अंश[१]

८ नवम्बर, १९२७

आयोग द्वारा अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत किये जानेके बाद और उसपर भारत सरकार तथा सम्राट्की सरकार द्वारा विचार हो चुकनेके बाद, सम्राट्की सरकारका यह कर्त्तव्य होगा कि वह उस रिपोर्टके आधारपर संसद में अपने प्रस्ताव प्रस्तुत करे। लेकिन सम्राट्की सरकारका मंशा यह नहीं है कि उन प्रस्तावोंके बारेमें भारतकी विभिन्न विचार धाराओंके लोगोंको उसपर अपने विचार प्रकट करनेका अवसर दिये बिना ही वह संसदसे उन प्रस्तावोंको स्वीकार करने को कहे।

  1. देखिए "भेंट : एसोसिएटेड प्रेसके प्रतिनिधिसे", १-१२-१५२७।