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परिशिष्ट


जब भी किसी धर्म-परिवर्तन या पुनर्धर्म परिवर्तनके मामलोंमें ऐसी शिकायत की जाये कि ऐसा छल-बल अथवा अनुचित तरीके से किया गया है, और जब भी किसी अट्ठारह वर्ष से कम आयुके व्यक्तिका धर्म-परिवर्तन किया गया हो तो मामलेकी तहकीकात और उसका फैसला पंचों द्वारा किया जायेगा जिन्हें कार्य समिति नामजद करके या सामान्य नियमोंके अन्तर्गत नियुक्त करेगी।

इस प्रस्तावको श्रीमती सरोजिनी नायडूने पेश किया और श्री अबुल कलाम आजादने इसका अनुमोदन किया।

प्रस्तावपर मत लिये गये और वह सर्व सम्मति से पास हो गया।

[अंग्रेजीसे]
रिपोर्ट ऑफ द फोर्टी सेकेण्ड इंडियन नेशनल कांग्रेस एट मद्रास

परिशिष्ट १०
जवाहरलाल नेहरूका पत्र[१]

इलाहाबाद
११ जनवरी, १९२८

प्रिय बापूजी,

कार्य समितिको बैठक अब बनारसमें होनेवाली है और इसलिए मैं कुछ समय तक बम्बई या साबरमती नहीं जा सकता।

पिछला पत्र भेजने के इतनी जल्दी बाद ही आपको दूसरा पत्र भेजनेका मन नहीं होता, लेकिन कांग्रेसके प्रस्तावोंकी आपने जो आलोचना की है उससे मैं बहुत उद्विग्न हूँ और मुझे लगता है कि मुझे आपको फिरसे पत्र लिखना ही चाहिए। आप शब्दोंके चयन में हमेशा बहुत सावधान रहते हैं और आपकी भाषा अत्यन्त संयत होती है। इसलिए आपको ऐसी भाषाका प्रयोग करते देख कर मुझे और भी आश्चर्यं होता है और जो मेरी राय में सर्वथा अनुचित है। आपने विषय समितिकी कार्यवाहीकी सामान्य रूपसे निन्दाकी है और कुछ प्रस्तावोंको विशेष रूपसे ज्यादा कड़ी आलोचना और निन्दा करनेके लिए चुना है। क्या मैं यह कह सकता हूँ कि सुनी-सुनाई बातके आधारपर निर्णयकर बैठना हमेशा खतरनाक होता है? आप खुद उपस्थित नहीं थे और यह बात कतई सम्भव है कि विषय समितिमें व्यक्तिशः आनेके बाद आप जो राय बनाते वह फर्क होती। और फिर भी आपने चन्द लोगोंके विचारोंको अपने निर्णयका आधार बनाकर सम्पूर्ण समितिकी, या किसी भी हालत उसके अधिकांश सदस्योंकी निन्दा करना और उनके प्रतिकूल निर्णय देना ठीक समझा है। क्या आप सोचते हैं कि समिति या कांग्रेसके लिए यह बात न्यायपूर्ण है? आपने अनुशासनकी

  1. देखिए "पत्र : जवाहरलाल नेहरूको", ७-१-१९२८।