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परिशिष्ट

हमेशा ऐसे रहे हैं कि जिन्हें सन्तोषजनक नहीं कहा जा सकता। आपने कुछ कहा है तो बस इतना कि एक साल या अट्ठारह महीने के अन्दर आप यह आशा करते हैं कि खादी आन्दोलन तेजीसे और गुणोत्तर अनुपातमें फैलेगा और तब राजनीतिक क्षेत्रमें कोई सीधी कार्रवाई की जा सकेगी। तबसे अबतक कई साल और कई अट्ठारह महीने गुजर चुके हैं और वह चमत्कार अभी तक घटित नहीं हुआ है। यह मानना कठिन था कि चमत्कार होगा, लेकिन असम्भवको सम्भव बनानेकी आपकी क्षमता में हमारी जो निष्ठा थी उसने हमें आशान्वित रखा। लेकिन मेरे जैसे अधार्मिक व्यक्ति के लिए यह निष्ठा बहुत कमजोर सहारा थी, और मैं अब सोचने लगा हूँ कि यदि हम भारतमें खादीके सर्वप्रचलित होने तक स्वतंत्रताकी प्रतीक्षा करेंगे तो हमें अनन्तकाल तक प्रतीक्षा करनी होगी। खादीका विकास धीरे-धीरे होगा, और अगर युद्ध शुरू हो गया तो वह बहुत तेजी से बढ़ेगा, लेकिन मैं यह नहीं देख पाता कि उसके पीछे-पीछे स्वतंत्रता किस प्रकार आयेगी। जैसा कि मैंने आपके सामने कहा था, खादी कार्यका राजनीतिसे कोई वास्ता नहीं है और खादी कार्यकर्त्ताओं में ऐसी मनोवृत्ति पैदा हो रही है कि उनको अपने सीमित कार्यक्षेत्र से बाहर किसी चीजसे कोई मतलब नहीं है। जो काम वे करते हैं उसके लिहाज से यह चीज अच्छी हो सकती है, लेकिन उनसे राजनीतिक क्षेत्रमें कुछ करनेकी कोई आशा नहीं रखी जा सकती।

तब फिर क्या किया जा सकता है? आप कुछ कहते नहीं। आप केवल आलोचना करते हैं और कोई मार्गदर्शन आपकी तरफसे नहीं मिलता। आप कहते हैं कि यदि देश खादी तकको नहीं अपना सकता तो फिर उससे किसी और अधिक कठिन या साहसिक कामकी अपेक्षा कैसे की जा सकती है। मैं नहीं समझता कि यह तर्क सही है। यदि एक तरीकेसे देश राजनीतिक दिशामें आगे नहीं बढ़ता, तो निश्चय ही हमारे नेताओंको चाहिए कि वे कोई दूसरा तरीका या अतिरिक्त तरीके ढूंढें।

'यंग इंडिया' में आपके लेखों—आपकी आत्मकथा आदि—को पढ़ते हुए मुझे अक्सर लगा है कि मेरे आदर्श आपके आदर्शोंसे कितने भिन्न हैं। और मुझे लगा है कि आप अपने निष्कर्षो में बहुत जल्दबाजी से काम लेते रहे हैं, या कहें कि किसी अमुक निष्कर्ष पर पहुँचनेके बाद आप जो भी साक्ष्य पा सके उस साक्ष्यके आधार पर उस निष्कर्षको उचित ठहरानेके लिए जरूरतसे ज्यादा व्यग्र रहे हैं। मुझे याद है कि किस प्रकार 'टू वेज' या ऐसे ही किसी शीर्षकवाले लेखमें आपने अपराधों और अनैतिकताके विषय में अमेरिकासे प्राप्त अखबारी कतरनोंको छाप कर अमेरिकी सभ्यता और भारतीय सभ्यताका भेद दर्शाया था। मुझे लगा कि यह कुछ ऐसा ही था जैसे कैथरीन मेयो अस्पतालोंसे प्राप्त कुछ घिनौने तथ्योंके आधार पर कोई निष्कर्ष निकाल रहा हो। फ्रेंच भाषाकी पुस्तक—'टुवर्ड्स मॉरल बैंकरप्सी'—पर आधारित आपकी लम्बी लेखमाला पढ़कर भी मुझे वैसा ही लगा। मुझे लगता है कि आप पश्चिमकी सभ्यताको गलत समझते हैं और उसकी बहुत-सी