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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सत्याग्रहके कानूनके अनुसार वल्लभभाईने सरकारसे विनयपूर्वक समझौतेके लिए कहा :"संभव है आप भूल न कर रहे हों। यह भी हो सकता है कि लोगोंने मुझे मुलावा दिया हो। पर आप तो पंच नियुक्त करें और उनसे इन्साफ करवायें। यह दावा मत कीजिए कि हम भूल कर ही नहीं सकते।" इस विनयका अनादर करनेकी मयंकर भूल करके सरकारने लोगोंके लिए सत्याग्रहका मार्ग साफ कर दिया है।

परन्तु सरकारतो कहती है कि वल्लभभाई पराये हैं, बाहरके हैं, परदेशी हैं। उसके पत्रकी ध्वनि है कि अगर वल्लभभाई और उनके साथी बारडोली न गये होते तो लोग जरूर ही लगान दे देते। उलटा चोर कोतवालको डाँटे । यह न तो वल्लभभाई ही समझते हैं, न हममें और ही कोई समझ सकेगा कि बारडोली जबतक हिन्दुस्तान में है, तबतक वल्लभभाई को या काश्मीरसे कन्याकुमारी तक या कराचीसे डिब्रूगढ़ तकमें रहनेवाले हिन्दुस्तानीको बाहरका आदमी कैसे कहा जा सकता है ? परदेशी, पराये, बाहरके तो सरकारके अंग्रेज अफसर हैं, और यदि अधिक स्पष्टतासे कहें तो पराये हैं पराई सरकारके सभी अफसर, चाहे वे काले हों या गोरे । सरकारका नमक खानेवाले सरकारका ही पक्ष लेंगे। द्रोण और भीष्म जैसोंको भी युधिष्ठिरसे कहना ही पड़ा था, हम जिसका नमक खाते हैं, उसीके तो कहलायेंगे। यह पराई सरकार वल्लभभाई और वल्लभभाईके समान लोगोंको बारडोलीके लिए परदेशी कहे यह कैसी उल्टी बात है ? यही तो दिया तले अंधेरा है। इसीलिए तो मेरे जैसोंने सरकारके साथ वफादारीमें पाप समझकर असहयोग किया। जहाँ इस हदतक अविनय हो, वहाँ न्यायकी क्या आशा रखी जाये ?

इस सरकारको न्याय कौन सिखलायेगा ? केवल सत्याग्रही। सरकार बुद्धिसे पराजित नहीं हो रही है। बलवान तो बलको ही कुछ गिनता है, वह तलवारकी नोक पर ही न्यायको तौलता है।

यह तलवार सत्याग्रहीकी दोधारी तलवारके आगे बेकार है। यदि बारडोलीके सत्याग्रहियोंमें सत्यका आग्रह होगा, तो या तो पंचकी नियुक्ति होगी या वल्लभभाईकी दलील स्वीकार की जायेगी और वल्लभभाई परदेशी न माने जाकर स्वदेशी गिने जायेंगे ।

इस पत्र व्यवहारसे और प्रश्न भी उठ खड़े होते हैं। उनका विचार पीछे होगा । यदि बारडोलीके लोग इतना याद रखेंगे कि बाकी सब उनके हाथमें है तो काफी है।

[ गुजराती से ]
नवजीवन, ४-३-१९२८