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आठ

कार्यकर्ताओंसे मिलना था। "मैं रोलाँसे मिलनेके लिए उत्सुक हूँ। वह मुझे यूरोपके सबसे अधिक बुद्धिमान व्यक्ति लगते हैं। वे मुझमें बहुत ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। यदि उन्हें ऐसा लगे कि किसी एक चीजमें भी मेरी राय गलत है, तो इससे उन्हें बड़ा कष्ट होता हैं" (पृ० १२७) । परन्तु जैसा कि गांधीजीका हमेशा तरीका रहा, मित्रके सम्मानसे अधिक उन्हें सत्यकी चिन्ता थी और इसलिए उन्होंने रोलाँको लिखा : "वास्तव में मैं आपका ठीक-ठीक साथ देना चाहता हूँ, लेकिन अगर मुझे आपकी हार्दिक मंत्री बरकरार रखनी है तो मुझे अपने प्रति भी सच्चा होना ही चाहिए" (पु० २७)। चाहे आमने-सामने आनेसे एक-दूसरेका भरम टूट जानेकी आशंका या जिस कार्यके लिए वे मानसिक रूपसे तैयार नहीं थे उसके प्रति बहुत सावधानी ही इसका कारण क्यों न हो, पर किसी निश्चयपर पहुँचना उन्हें बहुत ही कठिन लगा । म्यूरियल लेस्टरको एक पत्रमें उन्होंने लिखा, "मैं यूरोप जाने अथवा न जानेका पक्का निश्चय करने योग्य हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं (पृ० २४० ) । "गांधीजी अनिश्चयकी इस स्थितिसे परेशान भी थे । डा० अन्सारीको ७ अप्रैलको पत्र लिखते हुए उन्होंने कहा : "प्रस्तावित यूरोपकी यात्रा फिलहाल मेरे लिये बड़ी परेशानी पैदा कर रही है। मैं कुछ निश्चय नहीं कर पा रहा हूँ। मैं समझता हूँ कि मुझे इस तरह असमंजसमें नहीं पड़े रहना चाहिए। परन्तु अपनी कमजोरी छिपानेसे क्या लाभ ? (पृ० २१६)। गांधीजीने निश्चयका भार रोमाँ रोलाँपर ही छोड़ दिया, और जब वे उस जिम्मेदारीको लेनेको राजी नहीं हुए तो वह विचार ही त्याग दिया गया।

एक लेखमालामें गांधीजीने प्रचलित शिक्षा पद्धतिका खोखलापन दिखाया और ग्रामाभिमुखी व ग्राम-केन्द्रित शिक्षापर अपने विचार लोगोंके सामने रखे। गांधीजीने इसपर जोर दिया कि बच्चोंको न केवल 'रामायण' और 'महाभारत 'की बल्कि उनके आधुनिक आध्यात्मिक अर्थ (१० ३६४) की भी जानकारी होनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा,"'महाभारत' 'रामायण' आदिमें वर्णित घटनाओंके अक्षरको पकड़े रहनेसे हम असत्यके रास्ते चलेंगे और खाईमें गिरेंगे। उनके मर्मको समझकर, उसका पालन करनेसे और उसके अनुभवमें उतरनेसे हम अवश्य ही ऊंचे बड़ेंगे" (पृ० ४८०) । रामनवमीपर भाषण (पृ० १७६-८) देते हुए उन्होंने प्राचीन आख्यानोंके आध्यात्मिक अर्थपर कुछ विस्तारसे प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि ये आख्यान राम और कृष्ण आदिमें हमारी भावपूर्ण आस्थाको दृढ़ करके सम्बन्धित पौराणिक नायकोंको अन्तःकरणके शासकके रूपमें प्रतिष्ठित कर देते हैं। इससे हमें क्षणिक ही क्यों न हो,अतीन्द्रिय आनन्दका अनुभव मिलता है, और इस तरह धर्मका पालन स्वाभाविक तथा सरल हो जाता है। यह बताते हुए कि "ब्रह्मचर्यके बिना आत्माका पूर्ण विकास असम्भव है (पृ०४८०) उन्होंने एकाग्र निष्ठामें ब्रह्मचर्य और अन्य सब सदाचारोंकी कुंजी देखी। हनुमान “रामके अनन्य भक्त थे, उनके दास थे" (पृ० १९५) और उनकी निश्चल दृष्टिका अनुकरण करके बच्चे तक यह सीख सकते हैं कि वैसी लगन कैसे पैदा की जाती है।