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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कथनको युद्धके समर्थनका बहाना नहीं बनाया जा सकता। यह हो ही नहीं सकता। इसके विपरीत [ युद्धसे ] मनुष्य की क्रूरता और भी तीव्र हो जाती है। और जीवनकी पवित्रताका भाव नष्ट हो जाता है। अराजकतावादी, आपकी तरह ही तर्क देकर कह सकता है: हम यूरोपीयोंके आक्रमण और आतंकवादको नहीं रोक सकते। हम आतंकवादका जन-समुदायको शक्तिसे प्रतिरोध नहीं कर सकते। परन्तु यदि हम इन तरीकोंका, उन्हींके विरुद्ध प्रयोग कर इन तरीकोंकी बुराईका प्रदर्शन कर सकें, तो उन्हें अपनी मूर्खतापूर्ण प्रवृत्तिका पता चल जायेगा और हम स्वतन्त्र हो जायेंगे तथा हम संसारको भी आतंकवादसे छुटकारा दिला देंगे। जबतक हमारे शासक हिंसाका सहारा लेते हैं, और जबतक हम आतंकवादसे घृणा करते हैं, उन्हीं हथियारोंका प्रयोग करनेमें क्या हानि है; बशर्ते कि हम उन्हें अपने आपपर हावी न होने दें ? क्या वास्तवम महायुद्धसे राष्ट्रोंका और 'खास तौरपर' विजेताओंका कुछ हित हुआ है ? विजयके परिणामस्वरूप उनकी भौतिक, नैतिक और सामाजिक दृष्टि से बड़ी भारी हानि हुई है। उनके नैतिक सिद्धान्त डगमगा गये हैं। क्षणभंगुर जीवनके लिए संघर्ष में पड़कर अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहारमें सच्चाई और ईमानदारीकी उपेक्षा दिन-ब-दिन अधिकाधिक स्पष्ट होती जा रही है। युद्ध चाहे कितना भी न्याय संगत क्यों न हो, क्या उससे कुछ भी भलाई हो सकती है ? किसी भी तरीकेसे, सक्रिय अथवा निष्क्रिय रूपसे, युद्धके पक्षमें सहमति देने के बजाय क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं कि हम इसका विरोध करें चाहे उसकी वजहसे हमें दुःख ही क्यों न उठाना पड़े ? क्या आपको यकीन नहीं है कि शान्तिवादियोंने उन लोगोंकी अपेक्षा, जिन्होंने युद्ध में सक्रिय रूपसे भाग लिया, [ मानवताकी ] ज्यादा सेवा की है ? आप जो कुछ कहते हैं, वह शायद आपको १९१४ की मानसिक स्थितिका द्योतक है, जब आपका यह विचार था कि अंग्रेजों की मनोवृत्ति न्यायपरायणता की है। क्या आप अब भी समझते हैं कि वह ठीक था ? यदि कल दूसरे युद्धकी घोषणा कर दी जायें, तो क्या आप इस आशामें कि आप युद्धके बाद हालतको सुधार लेंगे, इंग्लैंडको स्वेच्छासे अपनी सहायता अर्पित करेंगे। मैं जानता हूँ कि मैंने अपना दृष्टिकोण अच्छी तरह प्रस्तुत नहीं किया है। परन्तु आप समझ सकते हैं कि में आपसे क्या कहनेको कोशिश कर रहा हूँ। मुझे आपका उत्तर पाकर प्रसन्नता होगी।

मैं लेखकके इस कथनसे सहमत हूँ कि उन्होंने अपने पक्षको सर्वोत्तम रूपमें प्रस्तुत नहीं किया है, किन्तु वे उन पाठकोंका प्रतिनिधित्व करते हैं, जो गम्भीरतापूर्वक लिखे गये लेखोंको भी केवल इसलिए सावधानीसे नहीं पढ़ते कि वे संयोगसे एक 'साप्ताहिक पत्र' में दिये गये हैं। यदि उक्त पत्र-लेखकके जैसे पाठक सम्बद्ध अध्यायको फिरसे पढ़ेंगे तो वे उसमेंसे नीचेके निष्कर्ष निकाल सकेंगे :