पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 36.pdf/१३५

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१०७. पत्र : दुनीचन्दको

आश्रम
साबरमती
१० मार्च, १९२८

प्रिय लाला दुनीचन्द,

आपका पत्र मिला। चूंकि दानकी बछियाके दाँत नहीं गिनने चाहिए, इसलिए मुझे आपकी शर्त स्वीकार करनी ही पड़ेगी और वह ब्याज छोड़ देना पड़ेगा जिसका आश्रमको कानूनी तौर पर हक है। आप विश्वास रखिये कि श्रीयुत कोठारी उतने सरल नहीं हैं जितना मैं हूँ और यदि आप उनका कर्ज समयपर उन्हें नहीं चुका देंगे, तो वह आपसे पूरा बनियोंवाला ब्याज मांगेंगे और यदि वह चक्रवृद्धि ब्याजके लिए आग्रह करने लगें तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा ।

जहाँतक लाला सूरजभानका सम्बन्ध है मैं देखता हूँ कि यहाँका प्रबन्धक-मण्डल उन्हें अपनी पत्नी सहित नहीं आने देना चाहता। प्रबन्धक-मण्डलका जो निर्णय है, उन्हें उसके कारणों सहित पत्र भेजा जा रहा है। और यदि यह सही है कि वह कुछ समय बाद साइकिल पर यात्रा करने के लिए जाना चाहते हैं, तो आश्रम इस तरहकी यात्राके लिए स्वास्थ्य लाभ करनेकी संस्था नहीं है। यह उन लोगोंके लिए है जो कोई ऐसा छोटा-मोटा काम चुनें, जिसका राष्ट्रीय उन्नतिमें योगदान हो और फिर परिणामकी अपेक्षा किये बिना उसमें जी जानसे जुटे रहें ।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी (एस० एन० १३०९४) की फोटो--नकलसे ।

१०८. पत्र : भूपेन्द्र नारायण सेनको

आश्रम
साबरमती
१० मार्च, १९२८

प्रिय भूपेन,

आपका पत्र मिला। मेरे विचारमें आपके लिए सबसे अच्छा रास्ता यह है कि आप कर्ज वापस कर दें और उसके बाद अनुदानके लिए प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करें, तथा अनुदान पर उसके गुण-दोषके आधार पर विचार होने दें। निजी तौर पर मेरा

१. देखिए “पत्र : दुनीचन्दको”, २९-२-१९२८ ।