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पत्र : जे० बी० कृपलानीको

युद्धमें' मेरे भाग लेनेका उल्लेख है, इस पहलूपर कुछ अधिक प्रकाश डाला गया है । मैं आपकी समस्याका समाधान न कर सका होऊँ तो भी कृपया बताइये कि इसमें आपके प्रश्नका उत्तर आ गया है या नहीं।

एन्ड्रयूज यहाँ हैं और कुछ दिन और यहाँ रहेंगे। क्या ही अच्छा हो कि यदि आप यहाँ आ जायें और कुछ दिन यहाँ मेरे साथ शान्तिपूर्वक बितायें, ताकि हम उन महत्वपूर्ण समस्याओं पर जिनका आप अपने पत्रों में उल्लेख करते रहते हैं, चर्चा कर सकें। बहरहाल इसका यह अभिप्राय नहीं कि आप पत्र-व्यवहारमें उसकी चर्चा न करें। जबतक यह जरूरी हो कृपया चर्चा अवश्य करते रहें।

हृदयसे आपका,

बी० डब्ल्यू० टकर
कलकत्ता

अंग्रेजी (एस० एन० १३१०४) की फोटो-नकलसे ।

११७. पत्र: जे० बी० कृपलानीको

सत्याग्रह आश्रम
साबरमती
१२ मार्च, १९२८

प्रिय प्रोफेसर,

संघ-सचिवके १ मार्चके पत्रके संदर्भ में यह कहना चाहता हूँ कि हमारे रास्ते में जितनी भी कठिनाइयाँ हैं, उनके बावजूद हमारा यह उद्देश्य अवश्य होना चाहिए कि हमारे उन कतैयोंकी पूरी हो, जो अपना सूत आम बाजारमें लाते हैं । मैं इस बातको आन्दोलनके हितमें अत्यन्त आवश्यक समझता हूँ । यदि हम वास्तवमें इन कतैयोंकी सेवा करना चाहते हैं, तो हमें उनके साथ सीधा सम्पर्क स्थापित करना ही चाहिए। इसमें कुछ समय भले ही लग जाए, परन्तु हमारा काम तबतक अधूरा रहेगा जबतक हम अपने कतैयोंको न जान लें। हम उनसे उनके अपने घरोंमें जाकर परिचित हों और देखें कि वे काम कैसे करते हैं। वह कपास कहाँसे लाते हैं और अपना समय अन्यथा कैसे बिताते हैं; उनके बारेमें इसी तरहकी दूसरी बातें भी जानें । यदि हम इसे अपने कामका आवश्यक अंग समझें तो कार्यकर्ताओंको निवृत्त करने न करनेका प्रश्न ही नहीं उठेगा । जैसे कि हिसाब-किताब रखनेका या हमें जो सूत मिलता है, उसके गुण और परिमाण जाननेका कोई प्रश्न ही नहीं होता। आपको कुछ और लिखनेका मेरे पास समय नहीं है। दूसरे मामलोंकी बाबत मैं आपसे कृष्णदासके

१. देखिए आत्मकथा भाग ४, अध्याय ३८ ।