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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मण्डलके अध्यक्ष को जो संक्षिप्त रिपोर्ट भेजी है, वह पढ़ने योग्य है। इसलिए मैं इस रिपोर्टके मुख्य अंश, उन लोगोंके निर्देशनके लिए, जो यह काम करते हैं, फिरसे प्रकाशित कर रहा हूँ ।'

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया,१५-३-१९२८

१२२. टिप्पणियाँ

अखिल भारतीय चरखा संघकी सदस्यता

उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण अपने आपमें स्पष्ट है । सन् १९२७ के आंकड़ेके मुकाबले तीनों श्रेणियोंके सदस्योंकी संख्या घटी है। इसका कारण या तो यह है कि सदस्य बनाने के लिए कोई प्रचार नहीं हुआ या फिर नाममात्रका ही हुआ है; क्योंकि संघकी नीति ही यह रही है, जो ठीक भी है, कि यज्ञार्थं कातनेके निमित्त उनमें प्रचारकी हदतक एक पैसा भी खर्च न किया जाये। अगर रुपया खर्च करके प्रचार कराया जाये और पैसा देकर एजेंसियोंके जरिये लोगोंको प्रोत्साहित किया जाये तो यज्ञार्थ कताईका महत्व ही कुछ नहीं रह जाता। किन्तु यदि सभी सदस्य एक-एक नया सदस्य बनानेका भार अपने सिर ले लें तो सदस्योंकी संख्या सहज ही दूनी हो जाये । यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि सदस्योंकी संख्या तो घटी है, किन्तु खादीके उत्पादन और बिक्री में तथा मजदूरीके लिए कातनेवालोंकी संख्या में बहुत वृद्धि हुई है।

तरुण बालकों, बालिकाओंकी जानकारीके लिए मैं अ० मा० चरखा संघकी कौंसिलके एक प्रस्तावकी नकल नीचे दे रहा हूँ। राष्ट्रीय शालाएँ प्रयत्न करें तो तरुण सदस्योंकी संख्या बहुत बढ़ सकती है :--

निश्चित हुआ कि संघके लिए तरुण सदस्योंका एक 'ब' वर्ग बनाया जाये जिसमें १८ सालसे कम उम्रके वे बालक या बालिकाएँ ली जायें जो नियमित रूपसे खादी पहनते हों, और जो संघको सालाना चंदेके रूपमें अपना काता हुआ एक सार और ठीक बटवाला दो हजार गज सूतका दिया करें।

बोधक आँकड़े

मैं आम सभाओं में यह बात बराबर कहता रहा हूँ कि अखिल भारतीय चरखा संघके जरिये १,५०० गाँवोंमें ५०,००० कतैयोंकी सेवा की जा रही है। अ० मा० चरखा संघने सूतकी मिकदारसे कतैयोंकी संख्या निकाली थी। उसीके आधार पर १९२७ में यह ब्यौरा दिया गया था। तबसे एक वर्षसे अधिक हो गया है। सही आँकड़े निकालनेके लिए प्रत्यक्ष प्रमाणका सहारा लिया गया था, यानी अ० मा० च० संघ

१. रिपोर्ट यहाँ नहीं दी जा रही है।
२. यह विवरण यहाँ नहीं दिया गया है।