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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सेवा द्वारा साम्राज्यके युद्धों और युद्धकी तैयारियोंका प्रतिरोध करने योग्य शक्ति और विश्वास प्राप्त कर सकूं तो यह बहुत अच्छी बात होगी, क्योंकि मैं इस बातकी परीक्षा करनेके लिए कि जनसमुदायमें अहिंसाका प्रयोग किस सीमा तक सम्भव है, स्वयं अपने ही जीवनमें इसका प्रयोग करनेकी कोशिश कर रहा हूँ ।

दूसरा उद्देश्य था साम्राज्यके राजनीतिज्ञोंका अनुग्रह प्राप्त करके स्वराज्य पानेका पात्र बन सकना । मैं साम्राज्यके जीवन-मरणके संघर्ष में उसकी सहायता करनेके सिवा और किसी तरहसे स्वराज्य पानेकी सुपात्रता हस्तगत नहीं कर सकता था। यहाँ यह भी अवश्य समझ लेना चाहिए कि मैं अपनी १९१४ की मानसिक स्थितिकी बात कर रहा हूँ, जब मुझे साम्राज्यके बारेमें यह विश्वास था कि यदि साम्राज्य चाहे तो स्वतन्त्रता संग्राममें भारतकी सहायता कर सकता है। यदि मैं आजकी तरह ही उस समय अहिंसक विद्रोही होता, तो मैं निश्चय ही सहायता नहीं करता, अपितु अहिंसाके जरिये सारे सम्भव प्रयत्नोंके द्वारा साम्राज्यके उद्देश्यको परास्त करनेकी कोशिश करता ।

युद्धके प्रति मेरा विरोध एवं अविश्वास उस समय भी इतना ही प्रबल था जितना कि आज है। परन्तु हमें यह स्वीकार करना है कि संसारमें बहुत-सी ऐसी चीजें हैं जिन्हें हम न चाहते हुए भी करते हैं। मैं क्षुद्रतम जीवित प्राणीके प्राण लेनेका भी उतना ही विरोधी हूँ जितना युद्धका । परन्तु मैं सदा इस आशामें ऐसे जीवोंकी हत्या करता रहता हूँ कि किसी दिन मुझमें ऐसी योग्यता आ जायेगी कि इन जीवोंकी जो अपने भाई-बन्धु हैं हत्याके बिना भी मेरा काम चल जायेगा । इसके बावजूद अहिंसाका पुजारी कहलानेका अधिकारी बननेके लिए मुझे ईमानदारीसे कठिन एवं सतत प्रयत्न तो करते ही रहना चाहिए। मोक्ष अर्थात् शरीरी अस्तित्वकी आवश्यकतासे मुक्ति पानेकी कल्पनाका आधार है परिपूर्ण पुरुषों और स्त्रियोंकी पूरी तरहसे अहिंसक होनेकी आवश्यकता । जैसे किसी भी अन्य वस्तु पर कब्जा जमाने में हिंसाकी जरूरत पड़ती है, वैसे ही शरीर धारण करनेमें भी हिंसाकी जरूरत पड़ती है, चाहे वह कितनी ही कम क्यों न हो । तथ्य यह है कि ऐसी परस्पर विरोधी दिखने- वाली बातोंके बीच, कर्तव्य पथको ठीकसे पहचान पाना हमेशा आसान नहीं होता है।

अन्तमें 'गीता' के जिस श्लोकका सन्दर्भ दिया है, उसके दो अर्थ हैं। एक यह है कि हमारे कार्योंके पीछे कोई स्वार्थ नहीं होना चाहिए। स्वराज्य प्राप्ति स्वार्थ साधन नहीं है। दूसरा अर्थ है कार्यफलसे निरासक्त रहना, जिसका अभिप्राय यह नहीं है कि उससे अनभिज्ञ रहें या उसकी उपेक्षा करें या उसे अस्वीकार कर दें। निरासक्त होनेका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि यदि अपेक्षित परिणाम न निकले तो कार्य ही छोड़ दिया जाये। इसके विपरीत यह उस अचल विश्वासका प्रमाण है कि उपयुक्त समयपर अपेक्षित परिणाम अवश्य निकलेगा ही।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १५-३-१९२८