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१२८. पत्र: शंकरको

सत्याग्रह आश्रम
साबरमती
१६ मार्च, १९२८

प्रिय शंकर,

तुम्हारा पत्र मिला । जहाँ तक पत्रोंका सवाल है मैंने अभी तक तुम्हारी पूरी तरहसे उपेक्षा की है, परन्तु तुम्हारी याद भी मेरे मनसे कभी दूर नहीं हुई, विशेष- कर इस कारण कि मैं स्वयं रसोईघर चलाने में विशेष दिलचस्पी ले रहा हूँ और सवेरे लगभग एक घण्टा सब्जी काटनेका करता हूँ। सम्मिलित कार्यमें मेरा यह योगदान होता है । गिरिराज अपने आपको कमजोर और कामके बोझको जरूरतसे ज्यादा महसूस कर रहा था। इसलिए वह इन दिनों बन रहे आदर्श गाँवमें चला गया है और फिलहाल उसका काम प्यारेलालने सँभाल लिया है।

मेरा स्वास्थ्य ठीक चल रहा है। मुझे यह बताते हुए दुःख हो रहा है कि मुझे फिर मजबूरन् दूधके आहार पर लौट आना पड़ा है, यद्यपि आशा है कि मैं फिर फल और गिरी आदि ले सकूँगा ।

मुझे तुमने जो मालिश करवाते देखा था, वह अभी भी करवा रहा हूँ; साथ ही स्वीडनकी बहनवाली मालिश भी करवा रहा हूँ। यह बहुत ही आसान है।

मथुरादाससे कहना कि मुझे खत लिखनेका समय कतई नहीं मिलता।

अंग्रेजी (एस० एन० १३१०९) की फोटो-नकलसे ।

१२९. पत्र : वायलेटको

सत्याग्रह आश्रम
साबरमती
१७ मार्च, १९२८

प्रिय वायलेट,

आपका लम्बा और दिलचस्प पत्र मिला। आपकी रायकी मैं कद्र करता हूँ, परन्तु मैं आपसे सहमत नहीं हो सकता। फिर भी मुझे यह जानकर बड़ा आश्चर्य होता है कि आप एक व्यक्ति द्वारा की गई वैयक्तिक गलती और एक सार्वजनिक कार्यकर्त्ता अथवा निगम द्वारा की गई सार्वजनिक गलतीमें कोई अन्तर नहीं समझती हैं । आप जैसा सुझाव देती हैं उस तरह लोग किसीके व्यक्तिगत व्यवहार पर कैसे पाबन्दी लगा सकते हैं। यह तो समाज सुधारकी समस्या है, और इसलिए आवश्यकता