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२९०. पत्र : एस० गणेशनको

आश्रम
साबरमती
२१ अप्रैल, १९२८

प्रिय गणेशन,

आपके पत्रका अन्तिम अनुच्छेद, जिसे मैं सबसे पहला मानता हूँ, मेरी समझमें नहीं आया; यद्यपि मैं यह समझ गया हूँ कि अभी कुछ समय तक आप श्री ग्रेगकी पुस्तक नहीं छाप सकते। 'यंग इंडिया में उस पुस्तकके सम्बन्धमें इतने दिनोंसे बार-बार चर्चा किये जानेके बाद भी यदि ऐसा हो, तो वह एक बहुत ही बुरी बात होगी। कृपया इस पत्रके पानेपर तारसे सूचित करें कि पुस्तकको यदि प्रकाशित करने जा रहे हैं तो कब तक ।

डा० स्टोप्सको 'आत्मसंयम बनाम आत्मरति' पर लिखी पुस्तक भेजनेके लिए क्षमा माँगनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। वास्तवमें उनकी पुस्तकोंकी समालोचना करने और उनका विज्ञापन भी करनेके बाद आपका उन्हें मेरी पुस्तक भेजना ठीक ही था। इसमें कोई गलत बात नहीं थी, परन्तु उनके द्वारा की गई मेरी पुस्तककी समालोचना छापनेको आप निश्चय ही बाध्य नहीं हैं; निस्सन्देह तबतक जबतक कि स्वतन्त्र रूपसे आप यह न समझ लें कि वह समालोचना अच्छी है और तर्क-सम्मत है। और अगर आप उनकी समालोचना प्रकाशित न करें तो उसे प्रकाशित न करनेका कारण उन्हें स्पष्ट रूपसे बताकर आप उनकी बहुत बड़ी सेवा करेंगे ।

अब रही आपके बारेमें। मैं एक ही सलाह दे सकता हूँ, वह यह है कि आपको अपने प्रस्तावके सम्बन्धमें बिलकुल दृढ़ हो जाना चाहिए और तब आप देखेंगे कि आपकी सारी दिक्कतें समाप्त हो गई हैं। हमारी दिक्कतें वास्तवमें तब पैदा होती हैं जब हम अपनी कमजोरी और द्विविधापूर्ण कार्योंके कारण इधर-उधर भटकते फिरते हैं। एक द्विविधारहित दृढ़ और स्पष्ट कार्य उस देदीप्यमान सूर्यके समान होता है जो केवल अन्धकारको ही दूर नहीं करता वरन् बीमारियोंके सब कीटाणुओंको नष्ट कर देता है। हमारी अधिकतर बुराइयों और दिक्कतोंकी जड़ हमारा अस्थिर चित्त होना है।

अगले सप्ताह मैं अपने यूरोपके दौरेके सम्बन्धमें निश्चय कर चुकूंगा और यदि मैंने जाना तय किया तो मैं मईके बीचमें या पहले सप्ताहमें जाऊँगा । आप जब भी आपकी इच्छा हो अवश्य आ जायें। परन्तु आने से पहले अपने सारे घोषित वायदोंको पूरा करनेका प्रयत्न करें।

मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आपने सन्तति-निरोध सम्बन्धी पुस्तकोंका विज्ञापन देना बन्द कर दिया है।

आपका,

अंग्रेजी (एस० एन० १३१९९) की माइक्रोफिल्मसे।