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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कमीको पूरा करनेका सीधा और सादा उपाय दिया हुआ है,और इसलिए वह कद्र करने योग्य है।

इसमें तो कोई शंका ही नहीं है कि कारीगरकी अपेक्षा बहुत-सी बातोंमें क्लर्क की स्थिति अधिक दयनीय होती है। इस वस्तुकी हूबहू तस्वीर मेरे आगे सन् १९१५ में रखी गई थी। कलकत्तेमें मैं मारवाड़ी कर्मचारी मण्डलसे मिला था। उन्होंने अपनी लाचारीका जो वर्णन मुझे सुनाया था वह सचमुचमें करुणाजनक था।

क्लर्कोंकी संख्या कम है, उनकी सहन-शक्ति भी कम है और उनमें एकता भी कम ही है। कारीगरके कुटुम्बमें सभी कमानेवाले होते हैं, जबकि क्लर्कके यहाँ बहुत करके एक ही कमानेवाला होता है। इस स्थितिको सुधारनेमें क्लर्क को खुद पूरा- पूरा प्रयत्न करना चाहिए। उनमें एकता होनी चाहिए। कुटुम्बको पराधीन रहने देनेके बदले दूसरोंको और खासकर अपनी पत्नीको ऐसी मदद और शिक्षा देनी चाहिए कि जिससे वह कोई काम कर सके। क्लर्क आत्मविश्वास खो बैठनेके कारण दीन जैसे हो जाते हैं, यों मानते हैं कि एक जगहसे गये तो फिर कहीं सिर ढँकनेकी भी जगह नहीं मिलेगी। जो ईमानदार हैं, अपने काममें होशियार हैं, जिनका शरीर अच्छा है और जो उद्यमी हैं, उन्हें किसी दिन नौकरी मिलनेमें मुश्किल नहीं हुई है।

जब हम सामाजिक नीतिका पाठ पढ़ चुके होंगे, तब हम देखेंगे कि कारीगर, दफ्तरके बाबू या मालिक एक ही शरीर अथवा तन्त्रके अविभाज्य अंग हैं। न उनमें कोई बड़ा है और न कोई छोटा। उनके स्वार्थ मी परस्पर विरोधी नहीं हैं किन्तु एक हीं हैं, वे एक दूसरेपर निर्भर हैं।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २२-४-१९२८


२९६. पत्र : एलिजाबेथ नडसनको

आश्रम
साबरमती
२२ अप्रैल, १९२८

प्रिय कुमारी नडसन,

मुझे इस बातपर बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि इतने दिनों तक आपका कोई पत्र क्यों नहीं आया। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि कराचीमें आपको इतनी सफलता मिल रही है। राष्ट्रीय सप्ताहके कारण मैंने तेल मालिश और आपकी सुझाई मालिश दोनों बन्दकर दी थीं और कार्याधिक्यके कारण मैं उन्हें फिरसे शुरू नहीं कर पाया हूँ। लेकिन मालिश बन्द करनेके बावजूद भी मेरा वजन करीब दो पौण्ड बढ़ा है। ज्यों ही कामका बोझ कम होगा, आशा है कि मैं फिरसे मालिश शुरू कर दूंगा ।