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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लगता है कि उस सन्देशको देनेका मेरा सबसे अच्छा तरीका स्वदेशमें ही काम करना है। अगर हिन्दुस्तानमें मैं जाहिर तौरपर सफलता पाकर दिखला सका तो मेरा सन्देश देनेका काम पूरा हो जायेगा। अगर मैं इस निष्कर्षपर पहुँचा कि हिन्दुस्तानको मेरे सन्देशकी कोई जरूरत नहीं है तो उसमें विश्वास रखते हुए भी मैं उसे सुनाने लिए श्रोताओंकी तलाशमें और कहीं नहीं जाऊँगा । इसलिए अगर मैं हिन्दुस्तान के बाहर जानेका साहस कभी करूंगा भी तो इसलिए कि मुझे विश्वास है, कि चाहे धीरे-धीरे ही क्यों न हो, हिन्दुस्तान मेरे सन्देशको अपना रहा है; हालांकि मैं उसे सबको सन्तोषजनक ढंगसे प्रत्यक्ष नहीं दिखला सकता ।

इस तरह जब मैं निमन्त्रण देनेवाले मित्रोंसे हिचकिचाहटके साथ पत्र-व्यवहार कर रहा था मैंने देखा कि मेरे यूरोप जानेकी और कुछ नहीं तो इसलिए जरूरत है कि मुझे श्रीयुत रोमांरोलाँसे मिलना है। साधारण यूरोप-यात्रा करने के सम्बन्धमें अपने प्रति आश्वस्त न हो पानेके कारण मैंने पश्चिमके इस बुद्धिमान पुरुषसे मिलनेके लिए ही जाना यूरोप-यात्राका मुख्य कारण बनाना चाहा। इसलिए मैंने उनके सामने अपनी कठिनाई पेश की और अत्यन्त स्पष्ट ढंगसे पूछा कि क्या आप अपनी मुलाकातको ही मेरी यूरोप-यात्राका मुख्य कारण बनाने देंगे ? इसके जवाब में श्रीमती मीराबाई (कुमारी स्लेड) की मार्फत उन्होंने मुझे बड़ा उत्तम पत्र भेजा है, जिसमें लिखा है कि “मैं केवल अपनी मुलाकातको ही यूरोप-यात्राका मुख्य कारण स्वयं सत्यके ही नामपर नहीं बनाने दूंगा।" केवल उनसे मिलनेके लिए वे मुझे अपने काम में व्याघात नहीं डालने देंगे। उनके पत्रमें मैं झूठी नम्रता नहीं देखता। उसमें मैं सत्यकी नितान्त सच्ची झलक देखता हूँ। मेरे पत्रका जवाब लिखते समय जानते थे कि मैं केवल मामूली भेंट मुलाकातके लिए ही यूरोप नहीं आ रहा हूँ, बल्कि उस उद्देश्यके लिए आ रहा हूँ, जो उन्हें भी वैसा ही प्रिय है जैसा कि मुझे। किन्तु जाहिर है कि वे इतने विनीत हैं कि महज इसलिए कि हम दोनों अपने एक समान प्रिय कार्यकी उन्नतिके लिए पारस्परिक बातचीतसे एक दूसरेको अच्छी तरह समझ सकें, वे मुझे बुलानेकी जिम्मेदारी लेनेको तैयार न हो सके; जब कि मैं चाहता था कि अगर उन्हें लगे कि सत्यके लिए हम दोनोंका मिलना आवश्यक है, तो वह यह मार उठायें। इसलिए मैंने उनके जवाबको अपनी प्रार्थनाका स्पष्ट उत्तर मान लिया है। उनकी मुलाकातके सिवाय मुझे यूरोप जानेके लिए और कोई आन्तरिक प्रेरणा नहीं जान पड़ी ।

मैंने इच्छा न रहनेपर भी ये बातें इसलिए जनताके सामने रख दी हैं कि अखबारोंमें छपा था कि मैं इस मौसममें यूरोप जानेकी बातपर गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहा हूँ। मुझे अपने इस निश्चयपर खेद है, किन्तु यही निश्चय सही जान पड़ता है; क्योंकि जहां यूरोप जानेकी कोई प्रेरणा नहीं है, वहाँ यहीं रहकर बहुत कुछ करनेकी प्रेरणा बराबर होती ही रहती है। और अब तो मेरे अपने सर्व- श्रेष्ठ साथीकी मृत्युसे ऐसा लगता है कि मानो मैं आश्रममें ही बँध गया हूँ।

परन्तु मैं यूरोपके अपने अनेक मित्रोंसे कह सकता हूँ कि अगले वर्ष अगर सब कुछ ठीक रहा, और वे तब भी मुझे बुलाना चाहेंगे, तो मैं यह मुल्तवी यात्रा अपनी